Fashion Policing: छोटे कपड़े या छोटी सोच? महिलाओं के पहनावे पर बवाल क्यों?

महिलाओं के कपड़ों को लेकर समाज में आज भी चरित्र का पैमाना तय किया जाता है, जबकि असली सवाल उनके पहनावे नहीं, बल्कि लोगों की छोटी सोच और जजमेंटल नज़रों का है।

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Priyanka
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Small clothes or small thinking Why the uproar on womens clothing: जब भी कोई लड़की जीन्स, स्कर्ट या बैकलेस टॉप पहनकर बाहर निकलती है, तो कुछ न कुछ ताने, नज़रें या सवाल ज़रूर उसका पीछा करते हैं। हमारे समाज में महिलाओं के कपड़ों को लेकर इतना हंगामा क्यों मचता है? क्या एक लड़की के कपड़े उसकी संस्कारी होने या चरित्र का प्रमाणपत्र बन गए हैं? ये सवाल सिर्फ कपड़ों का नहीं, सोच की उस दीवार का है जो अब भी औरतों की आज़ादी को सीमित करने की कोशिश कर रही है।

छोटे कपड़े या छोटी सोच? महिलाओं के पहनावे पर बवाल क्यों?

पहनावे को लेकर दोहरा मापदंड

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लड़कों के लिए जीन्स, शॉर्ट्स, बनियान या खुले शरीर में घूमना आम बात मानी जाती है, लेकिन वही चीज़ अगर कोई लड़की करे, तो उसे ‘भड़कीली’, ‘असभ्य’, या ‘संस्कृति विरोधी’ कह दिया जाता है। यह दोहरापन सिर्फ दिखाता है कि समाज अब भी महिला शरीर को नियंत्रण में रखना चाहता है। कपड़ों की लंबाई को नैतिकता से जोड़ना एक बेहद पुराना और गैर-ज़रूरी नजरिया है, जिसे बदलने की सख़्त ज़रूरत है।

यह सोच कहाँ से आई?

ये धारणा सदियों पुरानी पितृसत्तात्मक सोच का हिस्सा है। औरत के शरीर पर नियंत्रण रखने के लिए उसके पहनावे को सबसे पहले निशाना बनाया गया। ये सोच कि लड़की के कपड़े देखकर उसकी नीयत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है, एक खतरनाक सामाजिक सोच को जन्म देती है जोRape victim को दोष देती है, Eve teasing को जायज़ ठहराती है, और महिलाओं की स्वतंत्रता को बांधती है।

फैशन एक अभिव्यक्ति है, अश्लीलता नहीं

फैशन किसी भी व्यक्ति की आत्म-अभिव्यक्ति का ज़रिया होता है। कोई लड़की अगर स्टाइलिश कपड़े पहनती है, तो वो अपने आत्मविश्वास, पसंद और सुविधा को ज़ाहिर कर रही होती है। इसे 'अश्लील' कहना केवल उस व्यक्ति की मानसिकता को दर्शाता है जो महिला को सिर्फ एक शरीर के रूप में देखता है। असल में, कपड़े तो बहाना हैं नजरें ही गंदी हैं।

क्या कपड़ों से चरित्र तय होता है?

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कपड़े किसी के संस्कार, सोच या नैतिकता की पहचान नहीं होते। एक लड़की चाहे साड़ी पहने या Short dress, उसका व्यवहार, सोच और आत्मसम्मान ही उसकी असली पहचान होते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से, अब भी गाँव से लेकर शहरों तक, महिला के पहनावे को लेकर निर्णय सुनाए जाते हैं कभी स्कूल में dress code के नाम पर, तो कभी मंदिर में प्रवेश के नियमों के बहाने।

बदलाव लाना क्यों ज़रूरी है?

महिलाओं के कपड़ों को लेकर बनी सामाजिक निगरानी अब बंद होनी चाहिए। हमें अपने घरों, स्कूलों और समाज में ये शिक्षा देनी होगी कि हर इंसान को अपने पहनावे का हक़ है। जब हम महिलाओं को उनके पहनावे की वजह से जज करना बंद करेंगे, तभी असली आज़ादी का मतलब समझ पाएंगे। असल मुद्दा यह नहीं कि कपड़े कितने छोटे हैं, बल्कि सोच कितनी संकीर्ण है।

Fashion policing असल में महिला स्वतंत्रता पर पहरा है। यह उस सोच की देन है जो आज भी महिलाओं को फैसले लेने लायक नहीं मानती। हमें यह समझना होगा कि कपड़े सिर्फ फैब्रिक नहीं, एक महिला की स्वतंत्रता, आत्म-स्वीकृति और व्यक्तित्व की पहचान हैं। छोटे कपड़े किसी की सोच या चरित्र को छोटा नहीं बनाते लेकिन किसी की सोच ज़रूर उसमें झलक जाती है।

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