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हर महिला ने अपनी ज़िंदगी में यह लाइन जरूर सुनी होगी कि “जो भी करना, शादी के बाद करना।” यह एक ऐसी सोच है, जिसने अनगिनत महिलाओं की आज़ादी छीन ली है। लड़की पैदा होते ही कहा जाता है कि “यह पराया धन है।” जैसे-जैसे वह बड़ी होती है, अगर वह पढ़ाई करना चाहती है, कहीं घूमने जाना चाहती है, नौकरी करना चाहती है, मनचाहे कपड़े पहनना चाहती है या अपनी पसंद का खाना चाहती है तो उसे रोक दिया जाता है। जवाब हमेशा यही होता है कि “शादी के बाद करना।” परिवार उसे भरोसा दिलाते हैं कि शादी के बाद उसकी ज़िंदगी आसान हो जाएगी, कोई रोक-टोक नहीं होगी। लेकिन यह एक छलावा है।
"ये सब कुछ शादी के बाद करना" की अस्ल सच्चाई क्या है?
शादी के बाद की सच्चाई
शादी के बाद औरत की जिम्मेदारियाँ और बढ़ जाती हैं।अगर वह नौकरी करना चाहती है तो सुनना पड़ता है कि“ये सब अपने घर पर अच्छा लगता था, अब तुम्हारी जिम्मेदारी पति और ससुराल है।” अगर वह घूमना चाहती है तो कहा जाता है—“अब बहू होकर यह सब शोभा नहीं देता।” अगर वह अपनी मर्ज़ी के कपड़े पहनना चाहती है तो ताना दिया जाता है कि “अब तुम शादीशुदा हो, थोड़ा ढंग से रहो।” यानी शादी के बाद भी उसकी आज़ादी वहीं की वहीं रुक जाती है, बल्कि उस पर बोझ और बढ़ा दिया जाता है जैसे घर की इज़्ज़त का बोझ, बहू होने का बोझ, पत्नी होने का बोझ, माँ होने का बोझ।
दोहरा मापदंड
अगर बहू ऑफिस जाती है तो कहा जाता है कि“अपना बच्चा छोड़कर काम पर जा रही है।” लेकिन कभी बेटे से नहीं पूछा जाता कि “तुम अपना बच्चा छोड़कर क्यों काम पर जा रहे हो?” यह वही पितृसत्तात्मक सोच है जिसमें औरत को हमेशा जिम्मेदारियों के बोझ तले दबा दिया जाता है।
सच यही है…
“शादी के बाद करना” एक झूठा वादा है। सच तो यह है कि शादी के बाद महिलाओं को अपने लिए समय निकालना और भी मुश्किल हो जाता है। बहुत कम महिलाएँ ही अपनी शर्तों पर जी पाती हैं। ज़्यादातर तो समाज और परिवार की उम्मीदों के बोझ में उलझकर अपनी असली पहचान कहीं खो देती हैं।