आपने कभी गौर किया है कि हमारी दुनिया दो रंगों में बंटी हुई है? गुलाबी और नीला! बचपन से ही लड़कियों को गुलाबी रंग से और लड़कों को नीले रंग से जोड़ा जाता है। गुलाबी को कोमलता और लड़कों को नीले को ताकत से जोड़कर हम बच्चों के मन में एक अदृश्य सी लकीर खींच देते हैं। पर क्या रंग ही किसी के स्वभाव को तय कर सकते हैं? और क्या रोना सिर्फ कमज़ोर इंसान का काम है?
आखिर लड़कों को रोना क्यों मना किया जाता है?
आपने ज़रूर देखा होगा कि जब कोई लड़का रोता है, तो उसे अक्सर ये सुनने को मिल जाता है - "अरे, मत रो! लड़के रोते नहीं हैं।" या फिर "क्या लड़कियों की तरह रो रहा है?" ये सुनकर लड़के अक्सर अपने आँसू रोक लेते हैं। मगर सवाल ये है कि क्या रोना वाकई में कमज़ोरी की निशानी है? और लड़कों को अपनी भावनाओं को दबाना क्यों सिखाया जाता है?
आइए, थोड़ा गहराई में जाकर इन सवालों के जवाब तलाशते हैं और समझते हैं कि आखिर पुरुषों के आँसू को कमज़ोरी समझने की ये सोच कहाँ से आई और इसे कैसे बदला जा सकता है...
जड़ें पुरानी परंपराओं में
इस सोच की जड़ें सदियों पुरानी परंपराओं में हैं। प्राचीन काल में शारीरिक शक्ति और कठोरता को मर्दानगी का पर्याय माना जाता था। युद्ध में लड़ने और परिवार की रक्षा करने वाले पुरुषों से भावनात्मक प्रदर्शन की उम्मीद नहीं की जाती थी। धीरे-धीरे ये आदर्श समाज में रच बस गया और "असली मर्द" की परिभाषा बन गई। जहाँ कोमलता और भावनाओं को दिखाना कमज़ोरी माना जाने लगा।
समस्या ये है कि ये परिभाषा अधूरी है। मजबूती सिर्फ शारीरिक शक्ति से नहीं, बल्कि भावनात्मक मजबूती से भी आती है। अपनी भावनाओं को दबाने से न सिर्फ मानसिक तनाव बढ़ता है, बल्कि रिश्तों में भी दूरियां आ जाती हैं।
आज के दौर में ये समझना ज़रूरी है कि भावनात्मक स्वस्थ्य उतना ही ज़रूरी है, जितना शारीरिक स्वस्थ्य। हर किसी को खुश होना, गुस्सा होना, दुखी होना और रोना - ये सब भावनाएं स्वाभाविक हैं। इन्हें दबाने की बजाय, इन्हें स्वीकारना और व्यक्त करना सीखना चाहिए।
जब कोई लड़का रोता है, तो इसका मतलब ये नहीं कि वो कमज़ोर है. हो सकता है वो किसी मुश्किल से गुज़रा हो, किसी अपने को खो दिया हो या फिर किसी बात से बहुत दुखी हो। ऐसे समय में रोना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। ये आँसू कमज़ोरी नहीं, बल्कि मानवीय संवेदनाओं को दर्शाते हैं।
ज़रूरी है बदलाव
इसलिए ज़रूरी है कि हम पुरुषत्व की पुरानी परिभाषा को बदलें। लड़कों को ये सिखाएं कि अपनी भावनाओं को व्यक्त करना ठीक है। रोना कमज़ोरी नहीं, बल्कि ताकत है। ताकत इस बात की कि आप अपने दुख का सामना कर सकते हैं और उसे स्वीकार कर सकते हैं।
ये बदलाव स्कूलों से ही लाया जा सकता है। बच्चों को भावनात्मक शिक्षा देनी चाहिए। उन्हें ये सिखाएं कि अपनी भावनाओं को कैसे पहचाने और उन्हें स्वस्थ तरीके से व्यक्त करें। साथ ही, माता-पिता और समाज को भी अपनी सोच बदलनी होगी। लड़कों को रोने देने से, उनकी भावनाओं को समझने से ही हम एक ज़्यादा संवेदनशील और भावनात्मक रूप से मजबूत समाज बना सकते हैं।
इस बदलाव की शुरुआत खुद से की जा सकती है। आप अपने आसपास के लड़कों को ये संदेश दें कि अपनी भावनाओं को व्यक्त करना ठीक है।जब कोई लड़का दुखी हो या परेशान हो, तो उसे सुनें और समझें।