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Photograph: (Freepik)
जब भी करियर और परिवार के बीच संतुलन बनाने की बात आती है, तो यह सवाल अक्सर औरतों के हिस्से ही क्यों आता है? क्यों सिर्फ महिलाओं से उम्मीद की जाती है कि वे अपने सपनों और प्रोफेशनल लाइफ को बैकसीट पर रख दें, जबकि पुरुषों के लिए यह कोई मुद्दा ही नहीं बनता? भारतीय समाज में महिलाओं के लिए करियर और परिवार की जिम्मेदारियों को एक साथ निभाना किसी "टास्क" से कम नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि इस जद्दोजहद से सिर्फ महिलाएं ही क्यों गुजरती हैं?
"घर भी संभालो, करियर भी" यह दबाव सिर्फ महिलाओं पर क्यों?
समाज में एक आदर्श महिला की छवि ऐसी बनाई गई है जो घर की देखभाल भी करे और अगर करियर बनाए तो उसे भी परिवार से कमतर न आंकें। अगर कोई महिला शादी के बाद सिर्फ करियर पर फोकस करे, तो उसे "घर के लिए टाइम नहीं निकाल पाती" कहकर ताने दिए जाते हैं। वहीं, अगर कोई महिला परिवार के लिए करियर छोड़ दे, तो उसे "इतनी पढ़ाई-लिखाई का क्या फायदा?" जैसी बातें सुननी पड़ती हैं।
पुरुषों पर यह सवाल क्यों नहीं उठता?
घर और बच्चों की जिम्मेदारी सिर्फ महिलाओं की ही क्यों मानी जाती है? अगर कोई पुरुष अपने करियर में व्यस्त रहता है, तो उसे "ज़िम्मेदार पति" और "अच्छा पिता" कहा जाता है। लेकिन जब यही बात महिलाओं पर लागू होती है, तो उसे "घर के लिए लापरवाह" समझ लिया जाता है। पुरुषों से कभी यह सवाल नहीं किया जाता कि "तुम ऑफिस जाते हो तो बच्चों का ख्याल कौन रखता है?", लेकिन महिलाओं से यह सवाल आमतौर पर पूछा जाता है।
कामकाजी महिलाओं को "सुपरवुमन" बनने की जरूरत क्यों पड़ती है?
अगर कोई महिला करियर और परिवार दोनों को संतुलित करने में सफल हो भी जाए, तो उसे "सुपरवुमन" जैसी उपाधियां दी जाती हैं। लेकिन असलियत यह है कि उसे यह संतुलन बनाना ही क्यों पड़ता है? समाज को यह समझने की जरूरत है कि घर और बच्चों की जिम्मेदारी सिर्फ महिला की नहीं, बल्कि पति और परिवार के अन्य सदस्यों की भी होती है।
अब समय आ गया है कि इस मानसिकता को बदला जाए। महिलाओं को यह हक मिलना चाहिए कि वे अपने करियर और परिवार के बीच संतुलन को अपने तरीके से तय करें, बिना किसी सामाजिक दबाव के। परिवार की जिम्मेदारियों को बांटना जरूरी है ताकि महिलाएं अपने सपनों और करियर से समझौता करने के लिए मजबूर न हों।
करियर और परिवार के बीच संतुलन बनाना एक जेंडर-स्पेसिफिक समस्या नहीं होनी चाहिए। यह दोनों पार्टनर्स की साझा जिम्मेदारी होनी चाहिए। सवाल यह है कि क्या हम इस बदलाव के लिए तैयार हैं?