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रसोई में पुरुषों की समान भागीदारी क्यों है ज़रूरी?

खाना बनाने की कला कोई कठिन कार्य नहीं है, बल्कि यह एक रचनात्मक और मजेदार प्रक्रिया है। जिसमें पुरुष खुशी से अपनी समान भागीदारी दे सकते हैं। जिससे उनका पारिवारिक बंधन और मजबूत होकर निखरेगा।

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Ruma Singh
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participation of men in the kitchen

(Credit Image- The Economic Times)

Why Is Equal Participation Of Men Necessary In The Kitchen? “अब तुम बड़ी हो रही हो खाना बनाना सीखो” यह कहावत तो अक्सर आप सभी ने अपने घर में सुनी ही होगी। इस कहावत से आप आसानी से भारत के रसोईघरों से महिलाओं की सामाजिक स्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं। आज के समय में भी हर घर की बहू, मां और पत्नी चाहे कितनी भी पढ़ी-लिखी क्यों ना हो, कितने भी बड़े पद पर क्यों ना कार्यरत हो फिर भी घर के सभी सदस्यों के लिए खाना बनाने से लेकर परोसने तक का जिम्मा अक्सर महिलाओं का ही होता है। बचपन से ही भारतीय समाज में लड़कियों को घर का काम सिखाना शुरू कर दिए जाते है, लेकिन वहीं लड़कों को इससे दूर रखा जाता है। जिससे आगे चलकर पितृसत्ता की इस विचारधारा को लड़के अपने जीवन में गढ़ लेते हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों? क्यों हमने आज तक अपने भाई, पिता और पुरुष को कभी खाना बनाते नहीं देखा? लेकिन वहीं आप किसी होटल, रेस्तरां या ढ़ाबे जैसी जगह पर जाएं तो वहां पुरुषों ने अपना कब्जा जमाए रखा है। ऐसा इसलिए क्योंकि वहां काम के लिए पैसे मिलते हैं? हालांकि इसमें गलती किसी एक पुरुष की नहीं है, बल्कि गलती है उस पितृसत्तात्मक मानदंड की जो दशकों से लोगों में जकड़े हुए हैं। शायद इसी वजह से ऐसे नियम बनाए गए हैं, लेकिन पुरुष चाहे तो खाना बनाने में अपनी भागीदारी निभा सकते हैं। 

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रसोई में पुरुषों की समान भागीदारी क्यों है ज़रूरी? 

क्या कभी किसी पुरुष ने सोचा कि महिलाएं घर के सारे पुरुषों को खाना खिलाने के बाद खाना खाती हैं। कभी उनके साथ बैठकर खाना खाएं। क्या उन्हें हमारे साथ खाने का अधिकार नहीं है? हालांकि इसका मतलब यह कतई नहीं है कि सारे पुरुष क्रूर और हिंसक है। हां लेकिन ज़्यादातर पुरुष इस पितृसत्तात्मक सोच से परे जाकर सोच ही नहीं पाते हैं। जिसमें बदलाव की ज़रूरत है और इसकी शुरुआत आप अपने घर की महिलाओं का रसोई में योगदान देकर कर सकते हैं। 

देखा जाए तो खाना बनाने की कला कोई कठिन कार्य नहीं है, बल्कि यह एक रचनात्मक और मजेदार प्रक्रिया है। जिसमें पुरुष खुशी से अपनी समान भागीदारी दे सकते हैं। जिससे उनका पारिवारिक बंधन और मजबूत होकर निखरेगा। जब पुरुष अपने घर के रसोई में अपने जीवनसाथी का हाथ बटांते हैं, तो यह सिर्फ उनके रिश्तों को ही नहीं दर्शाता है बल्कि इसके साथ-साथ आप अपने नए पीढ़ी के समक्ष एक सकारात्मक उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं। जिससे उनमें भी यह भावना विकसित होती है कि हमें भी घर के कामों में अपनी हिस्सेदारी निभानी चाहिए और इससे घर के सभी सदस्यों को एक दूसरे के करीब आने का मौका मिलता है। साथ ही सभी मिलकर काम करते हैं तो इससे रिश्तो में आपसी समझ और सामंजस्य का विकास होता है, इसलिए इस रूढ़िवादी नियमों से अलग होकर घर के पुरुषों को खाना बनाने की जिम्मेदारी महिलाओं के साथ निभानी चाहिए और ऐसी पितृसत्ता प्रथा को पुरुष ही सिर्फ सुधार सकते हैं। जिसकी शुरुआत वह अपने घर में उठाए एक छोटी सी पहल से कर सकते हैं, क्योंकि उनके पास यह विशेषाधिकार होता है कि वह इस पितृसत्ता नियम को तोड़ सकें।

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