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महारानी सेतु पार्वती बाई: जब उन्होंने मासिक धर्म से जुड़ी पितृसत्तात्मक बंदिशों को चुनौती दी

जानिए कैसे त्रावणकोर की महारानी सेतु पार्वती बाई ने 20वीं सदी की शुरुआत में महिलाओं के मासिक धर्म से जुड़े सामाजिक और धार्मिक प्रतिबंधों को तोड़ा और महिला अधिकारों के लिए मिसाल कायम की।

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Vaishali Garg
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20वीं सदी की शुरुआत में, जब महिलाएं पितृसत्तात्मक व्यवस्था के तहत कई सामाजिक और धार्मिक प्रतिबंधों का सामना कर रही थीं, तब महारानी सेतु पार्वती बाई ने इन नियमों को चुनौती देकर महिला अधिकारों की दिशा में एक नई मिसाल कायम की। त्रावणकोर साम्राज्य की यह महारानी अपने समय से कहीं आगे की सोच रखने वाली थीं, जिन्होंने न सिर्फ सामाजिक मान्यताओं को तोड़ा, बल्कि महिलाओं की स्वतंत्रता और अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई।

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महारानी सेतु पार्वती बाई: जब उन्होंने मासिक धर्म से जुड़ी पितृसत्तात्मक बंदिशों को चुनौती दी

कौन थीं महारानी सेतु पार्वती बाई?

सेतु पार्वती बाई (1896-1983) जिन्हें 'अम्मा महारानी' के नाम से भी जाना जाता है, मशहूर चित्रकार राजा रवि वर्मा की पोती थीं। 1900 में, जब त्रावणकोर के शाही परिवार में उत्तराधिकारी की कमी थी, तब उन्हें और उनकी चचेरी बहन को गोद लिया गया। मात्र पाँच साल की उम्र में वे त्रावणकोर की जूनियर महारानी बन गईं।

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पार्वती बाई का संगीत में गहरा लगाव था, और वे एक बेहतरीन वीणा वादक थीं। उन्होंने अपने पूर्वज त्रावणकोर महाराजा स्वाति तिरुनाल राम वर्मा के संगीत और कला को प्रोत्साहन दिया।

पितृसत्तात्मक नियमों का विरोध

जहां समाज मासिक धर्म वाली महिलाओं के मंदिरों में प्रवेश पर रोक लगाता था, वहीं महारानी पार्वती बाई ने इन नियमों को तोड़ते हुए 1940 में सबरीमला मंदिर में प्रवेश किया। यह कदम उस समय के लिए क्रांतिकारी था, जब समाज महिलाओं के अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता को दबाने में लगा हुआ था।

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हालांकि उनके इस कदम का कड़ा विरोध भी हुआ, लेकिन इससे समाज में धीरे-धीरे बदलाव की नींव रखी गई। महिलाओं को हाशिए पर रखने वाली परंपराओं को चुनौती देने के उनके प्रयास आज भी प्रेरणा का स्रोत हैं।

सामाजिक और सांस्कृतिक योगदान

महारानी सेतु पार्वती बाई न केवल महिलाओं के अधिकारों के लिए जानी जाती हैं, बल्कि उन्होंने कला और संगीत को भी नई ऊंचाइयां दीं। वे 1929 में कलकत्ता और 1937 में त्रिवेंद्रम में आयोजित ऑल-इंडिया विमेंस सोशल कॉन्फ्रेंस की अध्यक्ष भी रहीं। इसके साथ ही, 1940 में वे नेशनल काउंसिल ऑफ विमेन इन इंडिया की अध्यक्ष और संरक्षक भी बनीं।

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उनकी सामाजिक गतिविधियों और कला में रुचि ने भारतीय सांस्कृतिक परिदृश्य पर गहरा प्रभाव डाला। उन्होंने महिलाओं के लिए स्वतंत्रता और बराबरी की बात की, और सामाजिक मान्यताओं को बदलने के लिए निरंतर प्रयास किया।

एक मिसाल और विरासत

महारानी सेतु पार्वती बाई ने जिस तरह से पितृसत्तात्मक समाज का विरोध किया और महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी, वह आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणा बन गईं। कला, संगीत और सामाजिक सुधारों में उनके योगदान ने भारतीय समाज में एक अमिट छाप छोड़ी।

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आज, उनके द्वारा उठाए गए कदम महिलाओं के लिए स्वतंत्रता और समानता की लड़ाई में मील का पत्थर साबित होते हैं।

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