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How much control over a child's life is justified?: जब मां-बाप बच्चों की परवरिश करते हैं तो उन्हें लगता है कि वो उनके हर फैसले में दखल दे सकते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है, कि वही सबसे अच्छा जानते हैं कि बच्चों के लिए क्या ठीक है और क्या नहीं। लेकिन सवाल ये है कि क्या बच्चों की पूरी ज़िंदगी पर हक़ जताना सही है? और अगर नहीं, तो कितना हक़ होना चाहिए और कितना नहीं? ये जानना बहुत जरूरी है, ताकि बच्चे के जीवन में मां-बाप उनके रोल मॉडल बने ना कि उन्हें कठपुतली की तरह कंट्रोल करने वाले मास्टर।
Parental Control: बच्चों की ज़िंदगी पर कितना हक़ सही है?
पेरेंट्स और बच्चों के बीच सुलझी हुई बातचीत जरूरी है
बच्चों से बात करना, उनकी बात सुनना और उन्हें समझना बहुत ज़रूरी है। जब मां-बाप सिर्फ अपने मन की करते हैं और बच्चों से अपनी बात मनवाने लगते हैं तो, बच्चा या डरपोक या फिर जिद्दी बन जाता है। जब मां-बाप और बच्चे दोनों आपस में खुलकर बात करें, तब ही अच्छा रिश्ता बनता है और बच्चा भी समझता है कि उसकी बात की कीमत है।
पेरेंट्स का फैसला लेने और दबाव डालने में फर्क़ जानना जरूरी है
अक्सर पेरेंट्स समझते हैं, कि जो कुछ भी वे करते हैं या कहते है, वो बच्चों की भलाई के लिए है। लेकिन कई बार ये भलाई असल में उनके अपने डर, पुराने तजुर्बे या समाज की सोच से जुड़ी होती है, बच्चों की पसंद या सपनों से नहीं। जैसे अगर कोई बच्चा पेंटिंग या म्यूजिक में करियर बनाना चाहता है, लेकिन मां-बाप कहते हैं कि नहीं, तुम्हें तो डॉक्टर या इंजीनियर ही बनना है, तो ये प्यार नहीं बल्कि जबरदस्ती होती है, जो बच्चे को उसके करिअर के प्रति डराती है और अपने सपनों को मन में दबा देने के लिए मजबूर करती है।
सही रास्ता दिखाने और हर बात में दखल देने में फर्क़ होता है
बच्चों को सही रास्ता दिखाना, अच्छे संस्कार देना और ज़रूरत होने पर उनकी मदद करना पेरेंट्स का काम होता है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि वो हर बात में दखल दें, जैसे कौन दोस्त बनेगा, क्या पढ़ाई करेंगे या बड़ा होकर क्या बनना है। बच्चे की अपनी भी सोच और पसंद होती है, और उसे अपनी ज़िंदगी अपने तरीके से जीने का हक़ मिलना चाहिए।
सही उम्र में आजादी देना और आजादी का सही मतलब समझाना पेरेंट्स का फर्ज है
बच्चों को उनकी उम्र के हिसाब से आज़ादी देना ज़रूरी होता है। जब बच्चे छोटे होते हैं, तब उन्हें बेसिक चीज़ें सिखाना ज़रूरी है, लेकिन जैसे-जैसे वो बड़े होते हैं, वैसे उन्हें अपनी पसंद और नापसंद पर खुद फैसला लेने देना चाहिए। मां-बाप को ऐसा बनना चाहिए जैसे कोई कोच हो, जो साथ तो हो, पर हर बात में हुक्म न चलाए, बस ज़रूरत पड़ने पर सही सलाह दे।