It must be understood that when a woman says no it only means no: हमारे समाज में महिलाओं की सहमति को हमेशा गंभीरता से नहीं लिया जाता। कई बार यह माना जाता है कि अगर कोई महिला 'ना' कह रही है, तो वह हिचकिचा रही होगी, संकोच कर रही होगी या फिर उसे मनाया जा सकता है। यही सोच महिलाओं की स्वतंत्रता और आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाती है। ‘ना’ सिर्फ एक शब्द नहीं, बल्कि एक स्पष्ट संदेश है, जिसे समझना और स्वीकार करना बेहद जरूरी है।
फिल्म पिंक में अमिताभ बच्चन का प्रसिद्ध संवाद -"जब एक महिला ना कहे, तो उसका मतलब सिर्फ ना ही होता है," - इस मुद्दे की गहरी सच्चाई को उजागर करता है। यह सिर्फ एक फिल्मी डायलॉग नहीं, बल्कि एक सामाजिक सच्चाई है, जिसे समझने की जरूरत है। सहमति किसी भी रिश्ते की नींव होती है, चाहे वह दोस्ती हो, प्रेम हो या विवाह। जब एक महिला किसी भी स्थिति में ‘ना’ कहती है, तो उसका मतलब केवल और केवल 'ना' होता है और इसे किसी बहाने या दलील से बदला नहीं जा सकता।
आज भी बहुत से लोगों को यह समझाने की जरूरत है कि सहमति और सम्मान किसी भी रिश्ते का सबसे अहम हिस्सा हैं। इस लेख में हम इस विषय पर विस्तार से चर्चा करेंगे कि महिलाओं की सहमति क्यों महत्वपूर्ण है, समाज में इसे क्यों नजरअंदाज किया जाता है और इसे लेकर सही सोच कैसे विकसित की जा सकती है।
समझना होगा, जब एक महिला 'ना' कहे, तो उसका मतलब सिर्फ 'ना' ही होता है
बचपन से ही लड़कियों को सिखाया जाता है कि उन्हें विनम्र रहना चाहिए, ज्यादा विरोध नहीं करना चाहिए और कई बार जबरदस्ती हां करनी पड़ती है, भले ही वे भीतर से असहज महसूस कर रही हों। यही कारण है कि जब वे बड़े होकर अपनी पसंद-नापसंद खुलकर जाहिर करती हैं, तो समाज इसे आसानी से स्वीकार नहीं करता। महिलाओं की आवाज़ को दबाना, उनकी ना को हां में बदलने की कोशिश करना या फिर जबरदस्ती अपनी बात मनवाना, यह सब समाज की पुरानी मानसिकता का ही हिस्सा है।
अगर किसी परिवार में कोई बेटी अपने घरवालों से कहे कि वह शादी नहीं करना चाहती या उसे किसी रिश्ते में दिलचस्पी नहीं है, तो अक्सर उसे समझाने, मनाने या फिर दबाव डालने की कोशिश की जाती है। अगर कोई महिला कार्यस्थल पर किसी सहयोगी के साथ सहज महसूस नहीं करती और दूरी बनाना चाहती है, तो लोग उसे ही गलत समझने लगते हैं। अगर कोई लड़की डेट पर जाने से मना कर दे, तो लोग इसे अपमान समझ लेते हैं। यह समस्या सिर्फ व्यक्तिगत स्तर पर नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से भी गहरी जड़ें जमा चुकी है।
यह समझना बहुत जरूरी है कि सहमति सिर्फ रिश्तों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हर स्थिति में जरूरी होती है। अगर कोई महिला किसी भी चीज़ के लिए मना करती है - चाहे वह शादी हो, दोस्ती हो, करियर का चुनाव हो या शारीरिक संबंध - तो उसके फैसले का सम्मान किया जाना चाहिए। 'ना' का मतलब संकोच, झिझक या इशारा नहीं, बल्कि एक स्पष्ट उत्तर है। इसे लेकर किसी को भी सवाल उठाने का हक नहीं होना चाहिए।
हर परिवार को अपनी बेटियों को यह सिखाना चाहिए कि उनकी 'ना' भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी किसी की 'हां'। बेटों को यह समझाना जरूरी है कि जब कोई महिला मना करे, तो इसे पूरी गंभीरता से लेना चाहिए। सहमति का सम्मान करना ही असली समानता की पहचान है।