Who was Dr. Rukhmabai: चिकित्सा की दुनिया में कदम रखने से पहले, रुखमाबाई को दादाजी भीकाजी के साथ अपने बाल विवाह को रद्द करने के लिए अदालत में मुकदमा लड़ना पड़ा। उस समय, महिलाओं से अपेक्षा की जाती थी कि वे अपने पतियों की सेवा करें और केवल अपने घर और चूल्हे की देखभाल करें। सभी बाधाओं को पार करते हुए, रुखमाबाई ने अपने पति की सेवा करने से इनकार कर दिया और इसके बजाय, एक बेहद सफल डॉक्टर बनने के लिए अपनी शिक्षा जारी रखी। दुनिया भर में कई युवा महिलाओं और लड़कियों के लिए प्रेरणा बनने के अलावा, उन्होंने सामाजिक सुधार के मुद्दों पर कई लेख लिखे। भारत में रुखमाबाई ने खुद को लैंगिक समानता और नारीवाद के लिए एक कार्यकर्ता के रूप में स्थापित किया था।
रुखमाबाई का बचपन
रुखमाबाई का जन्म 22 नवंबर, 1864 को महाराष्ट्र के एक छोटे से परिवार में हुआ था। बचपन में ही उन्होंने अपने पिता को खो दिया था। जब रुखमाबाई आठ साल की थीं, तब उनकी मां जयंतीबाई ने दूसरी शादी कर ली। उनके सौतेले पिता, सखाराम अर्जुन, एक विधुर और एक प्रतिष्ठित डॉक्टर थे। हालाँकि, उनके पिता की मृत्यु उनके बचपन का सबसे बड़ा दुःख नहीं था।
रुखमाबाई की शादी सखाराम के गरीब रिश्तेदार दादाजी भीकाजी से तब कर दी गई जब वह महज ग्यारह साल की थीं । ग्यारह वर्षीय रुखमाबाई को एहसास हुआ कि वह भीकाजी से शादी नहीं करना चाहती थी और इसलिए, शादी के बाद उनके घर में रहने से इनकार कर दिया। नतीजतन, भीकाजी "घरजमाई" बन गए और अपने सौतेले पिता के घर में रुखमाबाई के साथ रहने लगे।
सखाराम अर्जुन एक विद्वान व्यक्ति थे और चाहते थे कि उनका गरीब रिश्तेदार भीकाजी भी शिक्षित हों। उनका दृढ़ विश्वास था कि एक बार भीकाजी शिक्षित हो जायेगा, तो उसे एक अच्छी नौकरी मिल जाएगी, वह एक "अच्छे इंसान" बन जाएंगे और अपनी पत्नी का भरण-पोषण करने में सक्षम हो जायेंगे। लेकिन वह अपने परिवार के लिए भीतर भविष्य बनाने के लिए तैयार नहीं थी। भीकाजी के ऐसे बरताव को देखते हुए अर्जुन ने उन्हें एक अल्टीमेटम दिया, उन्होंने कहा कि भीकाजी उनका दामाद बनने के योग्य तभी होगा जब वह खुद को एक स्वतंत्र और कड़ी मेहनत करने वाला व्यक्ति साबित करेगा। इस बात से नाराज होकर भीकाजी ने घर को त्याग दिया।
रुखमाबाई का सामाजिक सुधार और शिक्षा में कदम
इस बीच, सखाराम अर्जुन ने रुखमाबाई को औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने उसे कई ब्रिटिश परिवारों से मिलवाया, इस उम्मीद में कि रुखमाबाई भी उदारवादी सोच वाली बन जायेगी। ब्रिटिश पुरुषों की सुशिक्षित बेटियों और पत्नियों को देखकर, उन्हें अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने की प्रेरणा मिली। भीकाजी से शादी होते ही उन्हें स्कूल छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा था और वह फिर से पढ़ाई के लिए लौटना चाहती थीं।
दुर्भाग्य से, लड़कियों के लिए स्कूल कम थे, इसलिए उन्होंने घर पर ही स्वयं सीखना शुरू कर दिया। अपने सौतेले पिता के मार्गदर्शन में, रुखमबाई ने धीरे-धीरे पढ़ना और लिखना शुरू किया। कुछ समय बाद, उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया को एक गुमनाम लेख प्रस्तुत किया जिसमें उन लड़कियों की दुर्दशा का विवरण दिया गया था जिन्हें कम उम्र में शादी के कारण स्कूली शिक्षा बीच में ही छोड़नी पड़ी थी। वह सामाजिक सुधार, विशेषकर भारत में महिलाओं और युवा लड़कियों से संबंधित मुद्दों में रुचि लेने लगीं। उन्होंने बाल वधुओं, हिंदू विधवाओं और पितृसत्ता के कारण पीड़ित अन्य भारतीय महिलाओं की दुर्दशा के बारे में विस्तार से लिखा।
उच्च शिक्षा और चिकित्सक
अपने सौतेले पिता से प्रेरित होकर, रुखमाबाई ने मेडिसिन में अपना करियर बनाने का फैसला किया। 1889 में वे लंदन चली गई और लंदन स्कूल ऑफ मेडिसिन फॉर वूमेन में पढ़ाई करी। भारत लौटने के बाद रुखमाबाई ने बंबई में चिकित्सा का अभ्यास करा। कुछ समय बाद, उन्होंने सूरत में मुख्य चिकित्सा अधिकारी का पद संभाला, वह 1917 तक सूरत में काम करती रहीं। 1918 में, उन्होंने राजकोट के जैनाना अस्पताल में मुख्य चिकित्सा अधिकारी के रूप में काम करना शुरू किया। उन्होंने अपने रिटायरमेंट तक वहीं कार्य किया।