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Photograph: (Youtube)
Does Lipstick Under My Burkha portray four women's quest for freedom:हमारे समाज में हर लड़की और हर औरत के पास अपने कुछ सपने होते हैं, कुछ इच्छाएँ होती हैं। लेकिन कई बार समाज, परिवार या परिस्थितियाँ उन्हें खुलकर जीने नहीं देतीं। Lipstick Under My Burkha ऐसी ही चार महिलाओं की कहानी है, जो बाहर से आम दिखती हैं, लेकिन उनके भीतर कुछ अधूरे सपने, कुछ दबी हुई इच्छाएँ और अपनी पहचान बनाने की जद्दोजहद चल रही होती है।
क्या फिल्म 'Lipstick Under My Burkha' चार महिलाओं की दबी इच्छाओं और आज़ादी की कहानी बयां करती है?
'Lipstick Under My Burkha' सिर्फ एक फिल्म नहीं है, यह एक सच्चाई है, जो हमारे आसपास हर लड़की और हर औरत के जीवन में कहीं न कहीं घटित हो रही है।
घर की चार दीवारों में सिमटी इच्छाएँ
हर लड़की को बचपन से ही सिखाया जाता है कि उसे कैसे रहना है, क्या पहनना है, क्या बोलना है और किससे दोस्ती करनी है। शादी के बाद भी यह दायरा और छोटा हो जाता है। फिल्म की चारों महिलाएँ - उषा, रिहाना, लीला और शिरीन – भी इसी समाज का हिस्सा हैं। उनकी इच्छाएँ हैं, लेकिन उन पर रोक है। किसी को अपने पति से इजाज़त लेनी पड़ती है, तो कोई समाज के डर से अपने सपनों को छिपाकर जीती है।
हर उम्र की औरतों की अलग कहानी, पर दर्द एक जैसा
फिल्म में दिखाया गया है कि एक अधेड़ उम्र की उषा (जो समाज की नज़र में सिर्फ एक ‘बड़ी उम्र की औरत’ है) अपनी इच्छाओं को मारकर जी रही है। एक यंग लड़की रिहाना अपने घर में बुर्के के अंदर रहती है, लेकिन बाहर की दुनिया में वह अपने सपनों को खुलकर जीना चाहती है। लीला शादी के बंधन में नहीं बंधना चाहती क्योंकि उसका अपना एक सपना है, एक ज़िंदगी है, जिसे वह अपनी शर्तों पर जीना चाहती है। वहीं शिरीन, जो एक हाउसवाइफ है, अपने ही घर में अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है।
समाज का डर और लड़कियों के लिए सही-गलत की परिभाषा
हमारे समाज में लड़कियों के लिए हर चीज़ की एक सीमा बना दी गई है – उनकी हंसी, उनकी पसंद, उनका प्यार, उनका करियर, यहाँ तक कि उनकी इच्छाएँ भी। अगर कोई लड़की इन सीमाओं को लांघना चाहे, तो सबसे पहले उसका परिवार ही उसे रोकता है। फिर समाज उसे जज करता है। यह फिल्म इसी कड़वे सच को दर्शाती है कि कैसे लड़कियों को अपनी ज़िंदगी अपनी तरह से जीने का हक़ नहीं मिलता, और अगर वे ऐसा करने की कोशिश भी करें, तो उन्हें ‘बुरी लड़की’ का तमगा दे दिया जाता है।
औरतों का सपना देखना गुनाह क्यों?
कई परिवारों में यह आम बात है कि लड़कियों को सिर्फ एक अच्छी बहू, अच्छी पत्नी और अच्छी माँ बनने के लिए तैयार किया जाता है। उनके अपने सपने, उनकी खुद की पहचान पर ध्यान नहीं दिया जाता। यह फिल्म इसी सोच पर सवाल उठाती है – आखिर औरतों के लिए अपनी इच्छाओं को पूरा करना इतना मुश्किल क्यों है? क्यों उन्हें अपने ही घर में, अपने ही परिवार से छिपकर जीना पड़ता है?
जब महिलाएँ अपनी पहचान खुद बनाना चाहती हैं
फिल्म का एक अहम पहलू यह भी है कि जब महिलाएँ अपनी ज़िंदगी खुद के हिसाब से जीने की कोशिश करती हैं, तो उन्हें समाज के ताने सुनने पड़ते हैं। उन्हें बग़ावती, संस्कारहीन, ज़िद्दी कहा जाता है। लेकिन इस फिल्म में चारों महिलाएँ दिखाती हैं कि अगर वे अपने सपनों को जीना चाहती हैं, तो उन्हें समाज की परवाह नहीं करनी चाहिए।