हाथरस रेप केस के दौरान, पूरा सोशल मीडिया महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचारों पर गुस्से से भरा हुआ था। हर क्रिएटर, व्याक्ति, पेज इस बारे में बात कर रहा था। कोई कह रहा था कि रेपिस्ट को वैसी सज़ा मिलनी चाहिए जैसी सऊदी अरब में मिलती है। कोई उनको लिंच करने की बात कर रहा था। और अब उस केस के लगभग 5 महीने बाद, कोई उसकी बात तक नहीं कर रहा। दोषियों को सजा हुई नहीं है, केस अभी भी चल रहा है, पर सोशल मीडिया का गुस्सा कहां गया?
नॉर्मल डे ऑफ़ सोशल मीडिया।
रोज़ाना दिनों पर आपको सोशल मीडिया पर सेक्सिस्ट जोक्स और मीम्स मिलेंगे। सार्वजनिक रूप से तीन - चार महिलाओं की स्लट - शेमिंग होती दिखेगी, जैसा फिलहाल रिहाना और मिया के साथ हो रहा है। रेप कल्चर को बढ़ावा देने वाली बातें कही जाएंगी और खूब सारा फेमिनिज्म बैशिंग। और अगर कुछ रह गया हो तो उन महिलाओं के पोस्ट कमेंट्स चेक करिएगा जो अपनी बात बेबाक तरह से रखती हैं।
2019 की रिपोर्ट के हिसाब से उस साल महिलाओं पर किए गए जुर्म के 4,05,861 केस रजिस्टर किए गए थे। ऐसे में फेमिनिज्म की बात रोज़ होनी चाहिए, बस जब ट्रेंड हो तब नहीं। और यदि हमें महिला सशक्त समाज बनाना है तो रेप कल्चर और सेक्सिस्म से बाहर निकलना होगा। अपने अंदर भरी हुई मिसोजिनी से परे होना होगा।
एक दिन का फेमिनिज्म।
जब कोई रेप केस सुर्खियों में आ जाए या केवल सोशल एक्सेप्टेंस के लिए इस मुद्दे पर बात करना काफी नहीं है। बात ये समझनी होगी कि इन तकलीफों के कारण किस तरह औरतों का जीवन यापन मुश्किल होता जा रहा है। कुछ के लिए ये केवल खबरें हो सकती हैं, पर कुछ के लिए उनकी रोज़ की ज़िन्दगी है जिसका सामना उन्हें रोज़ करना होता है , चाहे वो घर हो स्कूल, कॉलेज या वर्कप्लेस।
320 दिन फेमिनिज्म बैशिंग कर, पेट्रीआर्की से राज़ी ख़ुशी हो उसे बढ़ावा देना , फिर ये उम्मीद करना की एक दिन के गुस्से से सब ठीक हो जाएगा, बहुत ही बचकानी सोच है। हमें फेमिनिज्म की ज़रूरत साल में एक दफा नहीं, हर रोज़ है।