रुक्माबाई: भारत की पहली महिला डॉक्टर और तलाक लेने वाली पहली भारतीय महिला

रुक्माबाई ने न केवल लिंग भेद को चुनौती देकर डॉक्टर बनने का रास्ता बनाया, बल्कि पितृसत्ता का विरोध करते हुए भारत की पहली महिला बनीं, जिन्होंने तलाक लिया।

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Rajveer Kaur
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How Rukhmabai Fought Tradition and Paved the Way for Generations of Women

19वीं सदी के भारत में, जब महिलाओं की आवाज़ दबा दी जाती थी और उनके फैसले कठोर परंपराओं के हिसाब से तय किए जाते थे, तब एक युवती ने पूरे सिस्टम को चुनौती देने की हिम्मत दिखाई। वह थीं रुक्माबाई - एक ऐसी महिला, जिन्होंने न केवल अपनी ज़िंदगी को नए मायनों में ढाला, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी रास्ता रोशन किया। रुक्माबाई ने लिंग भेद को चुनौती देते हुए डॉक्टर बनने का साहस दिखाया और बाल विवाह जैसी कुरीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाकर भारत की पहली महिला बनीं, जिन्होंने तलाक लिया।

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रुक्माबाई: भारत की पहली महिला डॉक्टर और तलाक लेने वाली पहली भारतीय महिला   

परंपरा की जंजीरें तोड़ते हुए

1864 में बॉम्बे (आज का मुंबई) में जन्मी रुक्माबाई की शादी मात्र ग्यारह साल की उम्र में कर दी गई, जैसे उस समय की कई और बच्चियों की होती थी लेकिन दूसरों की तरह उन्होंने बंधनमय जीवन को स्वीकार नहीं किया। जब उनके पति ने तथाकथित “वैवाहिक अधिकार” जताने की कोशिश की, तो रुक्माबाई ने न सिर्फ घर के भीतर बल्कि अदालत में भी डटकर मुकाबला किया।

उनका मशहूर मुकदमा दादाजी बनाम रुक्माबाई (1885) ने औपनिवेशिक समाज की नींव हिला दी। अदालत ने भले ही शुरू में आदेश दिया कि वह अपने पति के साथ रहें, मगर रुक्माबाई ने साहसिक घोषणा की, “मैं जेल जाना पसंद करूंगी, लेकिन अन्याय के आगे नहीं झुकूंगी।” उस दौर में, जब महिलाओं से चुप रहने की उम्मीद की जाती थी, उनकी यह आवाज़ अन्याय के खिलाफ गूंजता हुआ एक प्रचंड "ना" थी।

संघर्ष को ताकत में बदलना

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इस संघर्ष ने उन्हें तोड़ा नहीं, बल्कि और मज़बूत बना दिया। रुक्माबाई इंग्लैंड गईं और वहां जाकर चिकित्सा की पढ़ाई की जो उस युग में किसी भारतीय महिला के लिए असंभव-सा कदम था। तमाम मुश्किलों के बावजूद, उन्होंने 1894 में लंदन स्कूल ऑफ मेडिसिन फॉर वीमेन से डॉक्टर की उपाधि हासिल की और इतिहास रच दिया।

भारत लौटकर सेवा का संकल्प

भारत लौटने के बाद, रुक्माबाई ने अपना जीवन महिलाओं की सेवा को समर्पित कर दिया। उन्होंने सूरत और राजकोट में डॉक्टर के रूप में काम किया और महिलाओं के लिए स्वास्थ्य सेवाओं को अधिक सुलभ बनाने की कोशिश की। समाज की बंदिशों ने महिलाओं को किस तरह पीछे रोका है, यह उन्होंने खुद अनुभव किया था, और उसी अनुभव को उन्होंने अपने काम का आधार बनाया।

रुक्माबाई के साहस ने 1891 के आयु सहमति अधिनियम (Age of Consent Act) को प्रेरित किया, जो बाल विवाह कानूनों में सुधार की दिशा में एक छोटा लेकिन बेहद अहम कदम था। इससे भी बढ़कर, उनके जीवन ने यह संदेश दिया कि महिलाओं को सपने देखने, पढ़ने-लिखने, काम करने और सबसे महत्वपूर्ण अपनी ज़िंदगी का रास्ता चुनने का अधिकार है।

एक अमर विरासत

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ऐसे दौर में जब समाज में महिलाओं की कोई आवाज़ नहीं थी, रुक्माबाई ने असाधारण साहस दिखाया। बाल विवाह को ठुकराकर उन्होंने साबित किया कि मजबूत संकल्प सबसे गहरी परंपराओं को भी चुनौती दे सकता है। तमाम मुश्किलों के बावजूद विदेश जाकर चिकित्सा की पढ़ाई करने का उनका फैसला इस बात का प्रतीक है कि शिक्षा ही स्वतंत्रता और सशक्तिकरण की सबसे बड़ी कुंजी है।

भारत की शुरुआती महिला डॉक्टरों में से एक बनकर रुक्माबाई ने न केवल अपने लिए रास्ता बनाया, बल्कि आने वाली पीढ़ियों की महिलाओं के लिए भी नए सपनों और ऊँचे लक्ष्यों का द्वार खोला।