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कौन थी 'शूटर दादी' चंद्रो तोमर? उनके बारे में जानें ये जरूरी बातें

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Swati Bundela
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'शूटर दादी' चंद्रो तोमर की सफलता की कहानी सैकड़ों लोगों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है। जौहड़ी गांव के छप्पर की
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शूटिंग रेंज में साधे गए पहले निशाने के बाद चंद्रो तोमर ने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उन्होंने ख्याति बटोरी और राष्ट्रीय स्तर पर कई पदक भी जीते।

'शूटर दादी' चंद्रो तोमर से जुड़ी कुछ बातें

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• 'शूटर दादी' का जन्म शामली के गांव मखमूलपुर में 1 जनवरी, 1932 को हुआ। 16 साल की उम्र में जौहड़ी के किसान भंवर सिंह से उनकी शादी हो गई। वें एक संयुक्त परिवार में रहती थी और परिवार की औरतों को कड़े नियम कायदों का पालन करना पड़ता था।

• उनका कहाना था कि उन्हें बचपन से घर के काम-काज करना सिखाया गया परंतु शायद भाग्य ने उनके लिए कुछ अलग ही सोच रखा था। जब उन्हें सत्यमेव जयते पर अपनी कहानी पूरी दुनिया को बताने का मौका मिला, तो उन्होंने ठानी कि वे औरतों के लिए खुलकर जीने का और इस पितृसत्ता समाज से मुक्त होने का नया तारिका खोजेंगी।
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• साल 1998 में जौहड़ी में शूटिंग रेंज की शुरुआत डॉ. राजपाल सिंह ने की। अपनी लाडली पौत्री शेफाली तोमर को निशानेबाजी सिखाने के लिए वह रोज घर से शूटिंग रेंज तक जाती। एक दिन चंद्रो तोमर ने एयर पिस्टल शेफाली से लेकर खुद निशाना लगाया। पहला निशाना दस पर लगा… यहीं से शुरू हुआ चंद्रो तोमर की निशानेबाजी का सफर।
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• 'शूटर दादी' चंद्रो तोमर और प्रकाशो तोमर पर एक फिल्म भी बनी - 'सांड़ की आँख'। इस फिल्म में अभिनेत्री तापसी पन्नू और भूमि पेडनेकर शूटर दादियों की भूमिका में हैं। फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह चंद्रो तोमर ने परिवार और समाज से संघर्ष कर यह मुकाम हासिल किया। चंद्रो दादी का कहना था कि, " तन बूढ़ा होता है, मन नहीं होता"।
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• उम्र के जिस पड़ाव पर लोग विराम ले लेते हैं, दादी ने वहां से नई जिंदगी की शुरुआत की। रूढ़िवादी सोच पर ऐसा निशाना लगाया, जो औरत को दोयम दर्जे का समझती है।
पितृसत्तात्मक समाज में अपनी जगह बनाना बेहद मुश्किल था। घर और बाहर वालों के ताने कलेजे में तीर से चुभते थे पर दादी ने कान बंद कर लिए। लगन थी तो बस लक्ष्य भेदने की।
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• उनका कहना था कि औरतों के खिलाफ अभी भी भेदभाव होता है और यह अधिकतर गांवों में ज्यादा देखा जाता है। इसलिए यह जरूरी है कि हम बड़े पर्दे पर महिलाओं की असल जिंदगी की कहानियां बताएं। मैं इस फिल्म (सांड़ की आँख) के माध्यम से सभी को यह बताना चाहती हूं कि हमें यहां गांव में किन संघर्षों का सामना करना पड़ता है और कैसे दो दादियां गांव के अनपढ़ समाज से होकर भी आज इतनी मशहूर है।

• घर में सब इसके (शूटिंग) खिलाफ थे परंतु मैं कान बंद करके लगी रहती। परिवार बहुत बड़ा था। इसलिए रात 12 बजे के बाद जग लेकर मैं अभ्यास करती। सहनशक्ति बड़ी चीज होती है। मुझे यह दिखाकर साबित करना था कि एक औरत भी सब कुछ कर सकती है। जो लोग मेरा उपहास उड़ाया करते थे, वे अब तारीफ करते हैं।
'शूटर दादी' चंद्रो तोमर महिला प्रेरक
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