How Do Anti- labour policies Affect The Lives Of Working Women: आज भी भारतीय समाज व्यवस्थित पितृसत्तात्मक सोच से घिरा हुआ है। जहां महिलाओं को हमेशा पुरुषों के तुलना में कम आंका जाता हैं। आज के समय में महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कंधे मिलाकर चल रही हैं। हर क्षेत्र में पुरुषों के समान अपनी भागीदारी दे रही हैं और खुद के लिए संघर्ष भी कर रही हैं, लेकिन फिर भी हमारे समाज में महिलाओं को पुरुषों जितना अधिकार नहीं दिया जाता। आज भी यह समाज रूढ़िवादी सोचों से जकड़ा हुआ है कि महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा कम काम करती हैं। यहां तक की इस पितृसत्ता सोच की धारणा है कि महिलाएं कभी पुरुषों के मुकाबले उतना काम कर ही नहीं सकती हैं। 21वीं सदी में हमारे देश में कई बदलाव आए लेकिन महिलाओं को लेकर हमारे समाज की सोच में कोई परिवर्तन नहीं आया। हां, लेकिन यह भी सच है कि आज कई महिलाएं अपने करियर को प्राथमिकता दे रही हैं। अपने घर की आर्थिक स्थिति में खुद का योगदान दे रही है, लेकिन फिर भी कामकाजी होने के बाद भी रूढ़िवादी सोच को उन्हें अपनाना पड़ता है। 8 से 12 घंटे की नौकरी करने के बावजूद उनके जिम्मे हर वो बुनियादी काम सौपें जाते हैं। जिसका उन्हें कोई भुगतान तक नहीं मिलता।
श्रम विरोधी नीतियां कैसे प्रभावित करती हैं कामकाजी महिलाओं के जीवन को?
यदि एक पुरुष बाहर काम करके आता है, तो शायद ही वह घरेलू काम में अपना योगदान देते होंगे, लेकिन वहीं जब एक कामकाजी महिला घर वापस आती है, तो उन्हें खुद का थकान भी महसूस नहीं कराने दिया जाता है। ऑफिस से आने के बाद भी वह घर का सारा काम करती है, जो एक गृहस्थ महिला करती है, क्योंकि उन पर अच्छी पत्नी, अच्छी मां और अच्छी औरत बनने का दबाव रहता है। उनके सामने शर्त रखा जाता है कि आप नौकरी करें लेकिन नौकरी के साथ-साथ आपको घर का सारा काम भी करना होगा। आखिर क्यों महिलाओं के प्रति ही श्रम विरोधी नीतियां अपनाई जाती हैं? क्यों ये पितृसत्ता समाज पुरुष के प्रति यह नीतियां लागू नहीं करती? आखिर कब तक महिलाएं इस जेंडर गैप मापदंड को ढ़ोती रहेंगी। अक्सर ऐसी स्थिति में कामकाजी महिलाओं को घर-परिवार में सहयोग नहीं मिल पाता और मजबूरन वह हार मान लेती है और यहां तक कि नौकरी भी छोड़ देती है। आखिर महिलाओं के साथ ही दोहरा कार्यभार क्यों?
सर्वे के अनुसार जहां महिलाएं औसतन 7 घंटे खुद को अवैतनिक घरेलू कामों पर लगाती हैं। वहीं पुरुष मुश्किल से 3 घंटे इस पर खर्च करते हैं। इस तरह एक कामकाजी महिला को दोहरी जिम्मेदारी का सामना करना पड़ता है। क्या हम इसे लैंगिक समानता के तौर पर देखेंगे? जब घर के पुरुष और महिला दोनों बाहर जाकर काम करते हैं, लेकिन जैसे ही घरेलू काम की बात आती है तो यह पितृसत्ता समाज द्वारा हमेशा महिलाओं का ही मुंह क्यों देखा जाता है? जब दोनों घर के आर्थिक स्थिति में बराबर का सहयोग दे रहे हैं। एक समान समय व्यतीत कर रहे हैं, तो फिर घरेलू कामों में साझेदारी क्यों नहीं? हां, इसके पीछे भारतीय रूढ़िवादी समाज की सोच जिम्मेदार हो सकती है। जो सदियों से ही लैंगिक तौर पर एक दायरा बनाए रखा है। जहां घर के सारे कामों का बोझ महिलाओं के ऊपर हैं, लेकिन आज बदलते समय में जब महिलाएं बेबुनियादी सोच से परे जाकर अपने वित्तीय सशक्तिकरण के बारे में सोच रही हैं तो ऐसे में पुरुष वर्ग को भी घरेलू काम में हिस्सा लेना होगा, तभी संपूर्ण रूप से लैंगिक समानता की नींव पड़ेगी।