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Patriarchal Motherhood: सदियों से महिलाएं झेल रहीं इसका बोझ

यह एक ऐसा ढांचा है जो सदियों से चला जा रहा है। यह एक जेनरेशन से दूसरी जनरेशन में अपने आप ही चलता जा रहा है और हर चीज जेंडर स्पेसिफिक है। इसके हिसाब से महिला बच्चे को पैदा करेगी, उसकी अच्छे से परवरिश करेगी और अपना सब कुछ खत्म कर देगी

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Rajveer Kaur
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Patriarchal Motherhood

(Image Credit: The Economic Times)

Patriarchal Motherhood:  माँ को हमेशा 'त्याग की मूरत' की तरह देखा जाता है जो बच्चों के लिए अपनी सुविधाओं को बलिदान कर देती है। उसकी अपनी कोई इच्छा नहीं होती है। हमारे समाज को ऐसी माँ अच्छी लगती है जो हमेशा खुद से पहले दूसरों को रखें। हमारी सोशल कंडीशनिंग ऐसी है जहां पर महिलाओं को खुद के बारे में सोचने ही नहीं दिया जाता है। हमें वो माँ अच्छी नहीं लगती जो कई बार खुद भी बाहर जाकर इंजॉय कर लेती हैै। पार्टनर को भी अपनी जिम्मेदारियां का एहसास दिलाती है और खुद भी ब्रेक की जरूरत महसूस करती है। हम ऐसी महिलाओं को कम मदर्स मानते हैं क्योंकि यह समाज के बने हुए स्टैंडर्ड के उपर नहीं चलती। चलिए आज हम देखेंगे कि कैसे पितृसत्तात्मक समाज में मातृत्व को देखा जाता है-

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सदियों से महिलाएं झेल रहीं पितृसत्तात्मक समाज में मातृत्व का बोझ

Patriarchal Motherhood क्या है? 

यह एक ऐसा ढांचा है जो सदियों से एक जेनरेशन से दूसरी जनरेशन में अपने आप ही चलता आ रहा है और यहाँ हर चीज जेंडर स्पेसिफिक है। इसके हिसाब से महिला बच्चे को पैदा करेगी, उसकी अच्छे से परवरिश करेगी और अपना सब कुछ खत्म कर देगी जैसे करियर क्योंकि वो एक माँ बन गई है। अगर वह अपना सब कुछ बच्चों के लिए दांव पर नहीं लगाती है तो वह अच्छी माँ नहीं है। इस तरह के पितृसत्तात्मक समाज में माँ सिर्फ वही है जिसने बच्चे को कोख से जन्म दिया है हालांकि ऐसा नहीं है। यह जरूरी नहीं है। यह एक एहसास है और इसका कोई भी जेंडर नहीं है लेकिन आमतौर पर समाज ने इसे सीमित कर दिया है

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महिलाओं पर कैसे इसका असर पड़ता है?

पितृसत्तात्मक समाज में मातृत्व का जो कांसेप्ट है वह हर तरह से महिलाओं को प्रभावित कर रहा है जैसे महिलाओं को यह सिखाया जाता है कि उन्हें खुद को पीछे रखकर दूसरों के कल्याण की और ध्यान देना है। हर चीज घर से घर के मर्दों से पूछ कर की जाती है। वह अपने आप कोई भी फैसला नहीं ले सकती हैं। इससे महिलाएं जेंडर रोल में बाधित हो जाती है कि उनका काम सिर्फ बच्चों को पैदा करना है और घर के काम करना है। घर के बाकी मसलों को पुरुष देखेंगे। अगर उन्हें कुछ कहना है या करना है तो उसके लिए उन्हें पुरुषों की आज्ञा लेनी होगी। वह अपनी तरफ से बिना किसी को बताएं या पूछे बिना कुछ नहीं कर सकती है। ऐसे में जो घर में लड़कियां पैदा होती है उन्हें भी इस ढांचे के अनुसार ही बड़ा किया जाता है। उन पर भी पितृसत्तात्मक का बोझ डाला जाता है, जिससे महिलाएं कभी भी इस ढांचे से बाहर निकल ही नहीं पाती हैं।

अगर कोई महिला माँ नहीं बनना चाहती है तो इस ढांचे के अनुसार वो बात गलत हो जाती है। ऐसा लगता है माँ  बनना महिला की ड्यूटी है न कि चॉइस। उसे माँ बनना ही पड़ेगा। उससे कोई नहीं पूछेगा कि तुम माँ  बनना चाहती हो? इतनी बड़ी जिम्मेदारी के लिए क्या तुम तैयार हो? पुरुष अपनी मर्दानगी दिखाता है और महिला को प्रेग्नेंट कर देता है। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि महिला कैसे इन सब चीजों में से गुजरती है।

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हमने अपनी मदर्स को यह सब सहन करते हुए देखा है। अब हमें यह चाहिए कि हम अपनी बेटियों और बहुओं के साथ ऐसा मत होने दें। उनके लिए माँ होना एक खुशनुमा एहसास होना चाहिए न कि गले में डाला हुआ फंदा जिसे उन्हें अपनाना ही पड़ेगा। यह उनकी चॉइस है। कोई भी व्यक्ति उन पर यह जोर नहीं डाल सकता है। इस दुनिया में कोई भी माँ बन सकता है। ऐसा जरूरी नहीं है कि सिर्फ जिसने पेट से ही बच्चे को जन्म दिया है वो ही माँ है। महिलाओं को 'सुपर मॉम' नहीं बनना है। उन पर प्रेशर मत डालिए कि अगर वो अपना सब कुछ छोड़ दे तभी वह अच्छी माँ हैं। हम पुरुषों से तो ऐसी अपेक्षा नहीं करते हैं फिर महिलाओं से क्यों? जब तक हम यह सोच नहीं बदलेंगे तब तक समाज में कोई बदलाव नहीं आएगा।

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