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Indian Women: सांस्कृतिक परंपराओं और प्रगतिशीलता के बीच संघर्ष करती भारतीय महिलाएं

ओपिनियन: यहां हर काम जेंडर मापदंड पर आधारित किया जाता है। हालांकि, अपवाद के तौर पर चुनिंदा घरों में कुछ पुरुष त्योहार में मदद करते हैं, लेकिन यह मदद ही होती है। कोई घरेलू कार्य की जिम्मेदारी नहीं और ऐसे पुरुषों की संख्या भी ना के बराबर है।

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Ruma Singh
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Indian Women.

( Credit Image: Freepik)

Indian Women Struggle Between Cultural Traditions And Progressivism: भारत हमेशा से ही विभिन्न उत्सव व धार्मिक रीति रिवाजों से परिपूर्ण देश रहा है। जहां हर साल कई तरह के त्योहार मनाए जाते हैं और इस सांस्कृतिक परंपरा का समाज भी सदियों से अभिन्न हिस्सा रहा है। यह सांस्कृतिक विविधता हमारे देश को सबसे अनोखा बनाता है। जिसमें विशेष प्रकार के व्यंजन हमारे रीति-रिवाज की पहचान बन चुके हैं और यह परंपरा सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। जिसकी बागडोर हमेशा से ही महिलाओं पर डाल दिया जाता हैं, क्योंकि सदियों से ही घर संभालने की जिम्मेदारी हमेशा महिलाओं को ही मानी गई हैं। बचपन से ही उन्हें सिखाया जाता है कि एक महिला घर के कामों में कैसे निपुण हो सकती है। चाहे वह समय त्यौहार का ही क्यों ना हो। अमूमन त्योहारों के समय घर में अनेक तरह के कार्यों के साथ विशेष व्यंजन भी तैयार करना होता है। जिस लेकर घर के पुरुष मानते हैं कि यह सारे तमाम काम घर की महिला सदस्य का है, क्योंकि यह पितृसत्तात्मक समाज है, जहां हर फैसले पुरुषों द्वारा लिया जाता हैं। चाहे घर हो या समाज। यहां महिलाओं को सिर्फ घर के कामों के अनुकूल ही समझ गया है।

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सांस्कृतिक परंपराओं के बीच संघर्ष करती भारतीय महिलाएं

कोई भी महिला चाहे गृहस्थ हो या कामकाजी। उनके लिए छुट्टी का कोई दिन नहीं होता। हर दिन उनके लिए बराबर होता है, लेकिन त्योहारों में उनके ऊपर मढ़ी गई जिम्मेदारी के कारण वह कहीं गायब सी हो जाती है। हां, यह भी सच है कि आज महिलाओं की स्थिति में बदलाव आए हैं, लेकिन घरेलू कार्य की जिम्मेदारी आज भी महिलाओं के हिस्से ही थोपी जाती हैं। जाहिर सी बात है कि जब एक पुरुष रोजमरा के कामों में अपने घर की महिला सदस्य का हाथ नहीं बटांते तो ऐसे में त्योहारों के दिन जिम्मेदारी कैसे उठाएंगे, क्योंकि यह पितृसत्तात्मक संरचना का परिणाम है। जो आज भी जेंडर मापदंड को लेकर चल रहा है। यहां हर काम जेंडर मापदंड पर आधारित किया जाता है। हालांकि, अपवाद के तौर पर चुनिंदा घरों में कुछ पुरुष त्यौहार में मदद करते हैं, लेकिन यह मदद ही होती है। कोई घरेलू कार्य की जिम्मेदारी नहीं और ऐसे पुरुषों की संख्या भी ना के बराबर है।

महिलाओं के समक्ष इससे आने वाली चुनौतियां

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आज महिलाएं ज्यादा शिक्षित हो रही हैं। जिससे उनमें अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ने के साथ-साथ नारीवाद की समझ भी हुई है, लेकिन इसके साथ ही उनके सामने कई चुनौतियां भी बढ़ रही हैं, क्योंकि आज भी यह समाज एक जागरूक, आत्मनिर्भर और अपने अधिकारों के लिए लड़ रही महिलाओं को स्वीकार करने को तैयार नहीं हो पाया है। आज भले महिलाएं अपने अधिकारों के लिए जागरूक हो रही है, हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही है। यहां तक कि अपने काम के सिलसिले में घर व परिवार से दूर भी रह रही है। इसके बावजूद भी उन्हें त्योहारों में पारंपरिक भूमिकाओं से छुटकारा नहीं मिल पाता है। वहीं, जब एक पुरुष त्योहार पर अपने घर आते हैं, तो बड़े आदर सत्कार से उनका स्वागत किया जाता है, लेकिन ऐसे ही स्थिति में महिलाओं पर कामों का बोझ डाल दिया जाता है। आखिर क्यों संस्कारों के नाम पर शोषण किया जाता है। जो कि गलत है, क्योंकि सांस्कृतिक परंपराएं और रीति रिवाज तो हमारे देश और समाज का अमूल्य धरोहर है, फिर इन सारे कार्यों का बोझ हमेशा एक जेंडर पर ही क्यों डालना। क्यों ना हम ऐसा समाज विकसित करें जहां सांस्कृतिक परंपराओं जैसे अमूल्य धरोहर में घर व परिवार के सभी सदस्य अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए आगे बढ़े। तभी जाकर सही मायने में त्योहार की खुशी व सार्थकता प्राप्त होगी और घर की महिलाएं भी त्योहारों में खुद को जी पाएंगी।

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