Women’s Day Special: क्या आज भी महिलाओं का खुद को सबसे बाद में रखना सही है?

हम सभी अक्सर यह देखते हैं कि हमारे घरों में महिलाएं हर काम को खुद से पहले रखती हैं। चाहे परिवार की देखभाल हो या अन्य काम वो पहले करती हैं और यदि उन्हें कुछ चाहिए कोई सपना है तो वो उसे सबसे बाद में रखती है। समय बदलने के बाद भी आज भी ऐसा है।

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Priya Singh
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Women’s Day Special: नई सदी में कदम रखने के बावजूद, समाज में महिलाओं की स्थिति को लेकर पुरानी धारणाएँ आज भी जिन्दा हैं। अब भी देखा जाता है कि महिलाएं घर परिवार काम और बाकी सारी चीजों को सबसे आगे रखती हैं और खुद को इस सब के बाद। आखिर ऐसा क्यों है कि महिलाएँ खुद को सबसे बाद में रखें - चाहे वह खाने की बात हो, करियर के अवसरों की हो या फिर अपनी हेल्थ की देखभाल की। यह सोच महिलाओं के आगे अब्धने और उनके विकास भी एक बाधा तो है ही साथ पूरे समाज को पीछे धकेलती है। क्यों यह जरूरी है कि महिलाएं हमेशा त्याग और बलिदान करें और खुद को पीछे रखें? जबकि वो भी इंसान हैं उन्हें भी समाज के हर वर्ग में हमेशा बराबरी से आगे बढ़ने का मौका मिलना चाहिए।

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क्या आज भी महिलाओं का खुद को सबसे बाद में रखना सही है? 

हमारे भारतीय समाज में तो महिलाओं को त्याग की मूर्ति के रूप में देखा जाता है। बचपन से ही उन्हें सिखाया जाता है कि परिवार की जरूरतें पहले आती हैं और उनकी खुद की इच्छाएँ और जरूरतें बाद में। घर में खाना बनने के बाद माँ या बहन का सबसे बाद में खाना खाना एक आम बात है। लेकिन क्या यह उनकी जिम्मेदारी ही है? क्यों नहीं घर के सभी सदस्य समान रूप से जिम्मेदारियों को निभाते हैं? जब पुरुष अपनी प्राथमिकताओं को पहले रख सकते हैं, तो महिलाओं को भी यही अधिकार क्यों नहीं?

महिलाओं का खुद को सबसे बाद में रखना सिर्फ घर तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उनके करियर और पर्सनल लाइफ में भी देखने को मिलता है। कई बार महिलाएँ परिवार की जिम्मेदारियों के चलते अपने सपनों से समझौता कर लेती हैं। वे अपने करियर को दूसरे स्थान पर रखती हैं और अपनी आकांक्षाओं को दबा देती हैं। इसका सीधा असर उनके आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता पर पड़ता है। समाज ने उन्हें यह विश्वास दिला दिया है कि उनकी प्राथमिक भूमिका परिवार की देखभाल करना है, लेकिन यह सोच महिलाओं की क्षमता को बाधित करती है और उन्हें पीछे धकेलती है।

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महिलाओं को यह समझना होगा कि उनका खुद के प्रति दायित्व उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि उनके परिवार के प्रति। एक स्वस्थ, खुशहाल और आत्मनिर्भर महिला बनना आवश्यक है। अगर महिलाएँ खुद को प्राथमिकता नहीं देंगी, तो समाज भी उन्हें कभी वह स्थान नहीं देगा जिसकी वे हकदार हैं। अब समय आ गया है कि महिलाएँ त्याग की परंपरा से बाहर निकलें और खुद के लिए खड़ी हों। उनका जीवन सिर्फ दूसरों की सेवा करने के लिए नहीं, बल्कि अपने सपनों को साकार करने के लिए है।

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