/hindi/media/media_files/2025/04/11/aEVgYMyzcW8QuFf7uTdL.png)
Tamil Nadu School Incident: हम चांद पर पहुंच गए, लेकिन पीरियड्स को अब भी 'पाप' समझते हैं। तमिलनाडु से आई एक खबर ने एक बार फिर हमारे समाज की सोच पर सवाल खड़े कर दिए हैं। एक दलित लड़की को सिर्फ इसलिए क्लासरूम से बाहर बिठा दिया गया क्योंकि उसे मासिक धर्म (Periods) हो रहा था। क्या आज के इस आधुनिक भारत में, जहां हम टेक्नोलॉजी में नई ऊंचाइयों को छू रहे हैं, वहां एक लड़की को उसकी जैविक प्रक्रिया के लिए अपमानित किया जाना सही है?
पीरियड्स आया, तो बाहर बैठा दिया? कब सुधरेगा हमारा नजरिया?
यह घटना न सिर्फ महिला स्वास्थ्य को लेकर फैले अज्ञान को दिखाती है, बल्कि यह भी बताती है कि जातिगत भेदभाव और लिंगभेद अब भी हमारे समाज में कितनी गहराई से मौजूद हैं। एक ओर हम अंतरिक्ष मिशन की सफलता पर गर्व करते हैं, और दूसरी ओर हमारे स्कूलों में लड़कियों को पीरियड्स के समय शर्म और सजा दी जाती है। ये विरोधाभास ही आज की सबसे बड़ी विडंबना है।
क्या सिर्फ इसलिए कि उसे पीरियड्स आया था?
जी हां। लड़की की मां का कहना है कि उन्होंने बस इतना कहा था कि बच्ची को आरामदायक जगह पर बैठाया जाए क्योंकि उसे पीरियड्स है। लेकिन स्कूल वालों ने उसे क्लास से ही बाहर कर दिया। सोचिए, क्या ये इंसानियत है?
क्या स्कूल ने कोई जवाब दिया?
स्कूल प्रबंधन ने सफाई में कहा कि ये लड़की की मां की ही मांग थी। लेकिन मां ने साफ कहा कि उन्होंने कभी नहीं कहा कि बच्ची को क्लास के बाहर बैठाया जाए। उन्होंने बस साफ-सुथरी जगह की बात की थी। अब मामला प्रशासन के पास पहुंच गया है, और स्कूल की प्रिंसिपल को सस्पेंड कर दिया गया है।
क्या सिर्फ जाति की वजह से भी ऐसा हुआ?
जब हम जाति और जेंडर दोनों को एक साथ देखें, तो साफ नजर आता है कि ये सिर्फ पीरियड्स की बात नहीं थी। ये एक दलित लड़की थी। क्या अगर कोई अमीर, ऊंची जाति की लड़की होती, तो भी उसके साथ ऐसा ही होता? समाज के अंदर गहराई में छिपा भेदभाव अब भी जिंदा है।
हम क्यों अब भी मानसिकता में पीछे हैं?
जब हम चाँद पर पहुंचने की बात करते हैं, AI से दुनिया बदलने की सोचते हैं, तब भी हमारे समाज में एक लड़की को सिर्फ इसलिए क्लासरूम से बाहर बैठाया जाता है क्योंकि उसे पीरियड्स हो रहे हैं ये हमें शर्मिंदा करता है। यह घटना सिर्फ एक छात्रा के साथ नहीं हुई, ये हर उस लड़की की कहानी है जो 'शरीर के सामान्य बदलाव' के लिए आज भी तिरस्कार झेलती है।
एक ओर हम डिजिटल इंडिया की बात करते हैं, और दूसरी ओर आज भी मासिक धर्म को 'छूआछूत' मानने की मानसिकता हमारे स्कूलों और घरों में जड़ें जमाए बैठी है। सवाल यह नहीं है कि वह दलित थी या नहीं सवाल ये है कि क्या एक लड़की के शरीर को लेकर हमारे समाज की सोच अब भी इतनी तंग क्यों है?
शिक्षा का मतलब सिर्फ किताबें पढ़ाना नहीं, बल्कि सोच बदलना भी होता है। अगर स्कूल ही इस तरह का भेदभाव सिखाएंगे, तो बच्चे क्या सीखेंगे? पीरियड्स को शर्म नहीं, समझ की ज़रूरत है।