The Ugly Truth: वर्जिनिटी, इज़्ज़त और कंट्रोल, महिलाओं की पसंद पर पहरा क्यों?

क्या वर्जिनिटी सिर्फ महिलाओं के लिए बनी है? समाज क्यों लड़कियों की इज़्ज़त को उनके शरीर से जोड़कर देखता है? पढ़ें इस बेबाक विश्लेषण में कि कैसे पितृसत्ता महिलाओं की पसंद पर पहरा लगाती है।

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Vaishali Garg
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virginity Respect and control in indian society

जब भी समाज में लड़कियों की आज़ादी की बात होती है, तो सबसे पहले जिस चीज़ पर सवाल उठते हैं, वह है उनकी ‘इज़्ज़त’। और ये इज़्ज़त किससे जुड़ी है? उनके कपड़ों से? उनके विचारों से? उनके करियर से? नहीं। इज़्ज़त जुड़ी है उनकी वर्जिनिटी से। यानी एक लड़की शादी से पहले सेक्स कर ले तो उसकी इज़्ज़त खत्म हो जाती है, लेकिन एक लड़का अगर सौ बार भी यही करे, तो उसे ‘मर्द’ कहा जाता है।

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अब सवाल उठता है ये वर्जिनिटी आखिर है क्या? एक जैविक प्रक्रिया या पुरुष प्रधान समाज का बनाया हुआ एक और हथियार, जिससे औरतों को कंट्रोल किया जा सके?

वर्जिनिटी: एक झूठा सामाजिक ठप्पा

वर्जिनिटी का पूरा कॉन्सेप्ट ही पितृसत्ता के इर्द-गिर्द घूमता है। सबसे पहले तो साइंस ये साफ कहता है कि वर्जिनिटी का कोई मेडिकल आधार ही नहीं होता। हाइमेन (Hymen) नाम की झिल्ली सिर्फ सेक्स से नहीं, बल्कि दौड़ने, एक्सरसाइज़ करने, साइकिल चलाने या किसी अन्य फिजिकल एक्टिविटी से भी फट सकती है।

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लेकिन समाज इस सच्चाई को क्यों नहीं मानता? क्योंकि अगर लड़कियों को ये बताया जाएगा कि उनकी वर्जिनिटी उनकी पवित्रता का प्रमाण नहीं है, तो उन्हें कंट्रोल कैसे किया जाएगा? इसलिए सदियों से ये झूठ फैलाया जाता रहा है कि अगर लड़की शादी से पहले सेक्स कर ले, तो वह ‘खराब’ हो जाती है।

शादी और वर्जिनिटी

लड़कियों के लिए शादी सिर्फ एक रिश्ता नहीं, बल्कि इम्तिहान बना दिया गया है। दहेज, कंडीशनिंग, आज्ञाकारिता जैसी कई परंपराओं के साथ वर्जिनिटी टेस्ट भी एक अनकही शर्त है। कुछ समाजों में तो बाकायदा ‘ब्लड-स्टेन शीट’ जैसी शर्मनाक प्रथाएँ मौजूद हैं, जहाँ पहली रात के बाद लड़की के वर्जिन होने का ‘सबूत’ मांगा जाता है।

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लेकिन जब लड़के की शादी होती है, तो क्या उससे भी यही सवाल किए जाते हैं? क्या उसका भी कोई टेस्ट होता है? नहीं। क्योंकि समाज में मर्द का सेक्सुअल एक्सपीरियंस ‘स्वाभाविक’ माना जाता है, जबकि औरत का ‘चरित्रहीनता’ का सबूत।

कंट्रोल का खेल: इज़्ज़त का डर बनाम पितृसत्ता की चाल

अगर गहराई से देखें, तो महिलाओं की वर्जिनिटी से जुड़ा पूरा विचार उन्हें डराने और दबाने का तरीका है। जब कोई लड़की इस पर सवाल उठाती है, तो उसे तुरंत ‘बिगड़ी हुई’, ‘बेशर्म’ और ‘कलंक’ जैसे शब्दों से नवाज़ा जाता है।

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इसका असली मकसद क्या है?

  • औरतों की सेक्शुअलिटी पर नियंत्रण बनाए रखना।
  • उन्हें अपनी चॉइस के लिए शर्मिंदा महसूस कराना।
  • उनकी शादी, उनके रिश्ते और उनकी ज़िंदगी के फैसले पर समाज का हक जताना।

ये कंट्रोल सिर्फ सेक्स तक सीमित नहीं रहता, बल्कि कपड़ों से लेकर करियर तक हर चीज़ में झलकता है। जब एक लड़की खुले विचारों वाली होती है, अपनी मर्ज़ी से जीना चाहती है, तो समाज को खतरा महसूस होता है। उसे डर रहता है कि अगर महिलाओं को उनकी बॉडी और उनकी चॉइस पर हक मिल गया, तो वे सवाल पूछने लगेंगी, ‘ना’ कहने लगेंगी, शादी के लिए मजबूर नहीं होंगी, और खुद के लिए फैसले लेने लगेंगी।

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सवाल जो उठने चाहिए, मगर दबा दिए जाते हैं

  • क्या वर्जिनिटी सिर्फ महिलाओं के लिए बनाई गई है?
  • क्या पुरुषों की सेक्शुअल लाइफ कभी उनकी इज़्ज़त पर सवाल खड़े करती है?
  • क्या शादी से पहले सेक्स सिर्फ औरतों के लिए पाप है?
  • क्या एक महिला की पवित्रता सिर्फ उसके शरीर से तय होनी चाहिए?

इन सवालों पर खुलकर चर्चा करने का समय आ गया है। इज़्ज़त शरीर से नहीं, सोच से तय होती है। वर्जिनिटी कोई ताला नहीं, जिसे खोलते ही औरत की क़ीमत गिर जाती है। अगर समाज सच में महिलाओं की इज़्ज़त करता है, तो उसे उनके कपड़ों, उनके रिश्तों और उनकी सेक्शुअल चॉइस पर सवाल उठाना बंद करना होगा। इज़्ज़त इंसान की होती है, न कि एक झूठे सामाजिक ठप्पे की।

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