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सुंदरता हमेशा से इंसान को आकर्षित करने वाली चीज़ रही है, लेकिन जब यह परिभाषा समाज गढ़ता है, तो यह सराहना से ज्यादा एक सज़ा बन जाती है खासतौर पर महिलाओं के लिए। बचपन से ही लड़कियों को यह सिखाया जाता है कि सुंदर दिखना उनके व्यक्तित्व का सबसे अहम हिस्सा है। उनके रूप, रंग, शरीर के आकार से लेकर कपड़ों तक, हर चीज़ को समाज एक तयशुदा पैमाने पर तौलता है। लेकिन सवाल यह है कि यह पैमाना आखिर किसने बनाया? और क्यों यह सिर्फ महिलाओं पर ही लागू होता है?
समाज की 'सुंदरता' की परिभाषा महिलाओं पर सबसे ज़्यादा ज़ुल्म क्यों ढाती है?
महिलाओं की सुंदरता पर समाज की कठोर नजर
अगर कोई लड़की गोरी है, तो उसे "सुंदर" कहकर सराहा जाता है। अगर वह सांवली है, तो उसे गोरा दिखने के नुस्खे दिए जाते हैं। अगर वह पतली है, तो उसे आकर्षक माना जाता है, लेकिन अगर उसका शरीर भारी है, तो उसे "फिट होने" की सलाह दी जाती है। और यह सिर्फ बाहरी दुनिया तक सीमित नहीं है घर, रिश्तेदार, दोस्त, और यहां तक कि सोशल मीडिया भी महिलाओं को एक तयशुदा रूप में देखने के लिए मजबूर करता है।
फिल्मों और विज्ञापनों में महिलाओं को एक खास तरह की सुंदरता के प्रतीक के रूप में दिखाया जाता है, जिससे बाकी महिलाएं अपनी असलियत से असंतुष्ट महसूस करने लगती हैं। यह मानसिक दबाव धीरे-धीरे इतना बढ़ जाता है कि महिलाएं खुद को समाज के हिसाब से ढालने की कोशिश में अपनी असली पहचान ही खोने लगती हैं।
क्या पुरुषों पर यह दबाव उतना ही होता है?
पुरुषों के लुक्स पर भी बातें होती हैं, लेकिन उन पर यह बोझ नहीं डाला जाता कि उनका पूरा व्यक्तित्व सिर्फ उनकी सुंदरता से तय होगा। कोई भी पुरुष सिर्फ इसलिए रिजेक्ट नहीं होता क्योंकि वह ज्यादा गोरा या सांवला है, या उसका वजन ज्यादा है। लेकिन महिलाओं के साथ यह अक्सर होता है। रिश्ते तय करने से लेकर करियर तक, उनकी सुंदरता को एक "योग्यता" की तरह देखा जाता है।
बदलते समय में भी क्यों नहीं बदल रही सोच?
आज महिलाएं हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं, लेकिन समाज की सुंदरता की परिभाषा अभी भी पिछड़ी हुई है। सोशल मीडिया ने इस दबाव को और बढ़ा दिया है, जहां हर कोई "फिल्टर वाली सुंदरता" को असली मानने लगा है। लेकिन क्या यह सही है? क्या महिलाओं का मूल्य सिर्फ उनके चेहरे और शरीर के आकार से तय होना चाहिए?
सुंदरता की नई परिभाषा की जरूरत
समय आ गया है कि सुंदरता की परिभाषा बदले। सुंदरता सिर्फ चेहरे की चमक या शरीर के आकार में नहीं, बल्कि आत्मविश्वास, विचारों और व्यक्तित्व में भी होती है। महिलाओं को यह समझने की जरूरत है कि वे जैसी हैं, वैसे ही खूबसूरत हैं उन्हें समाज की अप्राकृतिक परिभाषा के हिसाब से खुद को बदलने की जरूरत नहीं है।
तो क्या सुंदरता की यह कठोर परिभाषा महिलाओं के आत्मसम्मान को नहीं तोड़ रही? और क्या अब समय नहीं आ गया है कि हम इसे पूरी तरह बदलें?