Ab Soch Badlo Yaar: अक्सर हमने यह देखा है कि भारतीय घरों में छोटे से बड़े डिसीजन्स सिर्फ घर के मर्द ही ले सकते हैं, औरतें नहीं। अगर औरत अपना कोई फैसला लेती भी है तो उसे घर के 'मुखिया मर्द' की अप्रूवल या परमिशन लेनी ही पड़ती है। उसे हमेशा कहीं जाने से पहले, जॉब करने से पहले या कोई भी अपना या बच्चे का फैसला लेना हो तो अप्रूवल ज़रूरी है। कोई ख़ास कदम उठाने से पहले घर में डिस्कस करना बेशक ज़रूरी है, लेकिन औरतों से कोई सलाह नहीं लेता और औरतों को अपनी छोटी-छोटी ज़रूरतों और मांगों के लिए अपने पति, बेटे या पिता से परमिशन लेनी ही पड़ती है। औरत चाहे हाउस वाइफ हो या वर्किंग, उसकी राय घरों के फैसले लेने में ज़रूरी समझी ही नहीं जाती। उसे तो बस सुबह शाम खाने में क्या बनाना है, इसी फैसले तक सीमित रखा जाता है।
घर का मुखिया पति, पिता या बेटा ही क्यों, माँ, पत्नी या बेटी क्यों नहीं?
(Why Only Husband, Father Or Son Can Be Head Of The House But Not Mother, Wife Or Daughter?)
औरतों को मुखिया मर्दों के फैसले के अनुसार ही चलना पड़ता है। आइए जानते हैं कि औरतों की ज़िंदगी को यह सोच किस तरह और कितना इम्पैक्ट करती है।
जब लड़की अपने मायके में होती है तो उसे अपने पिता के डिसीजंस के हिसाब से चलना पड़ता है। कई घरों में माँ इस तरह की बातें पिता से पूछती है और फिर बेटी को परमिशन मिलती है। ससुराल में आते ही वह अपने पति के हिसाब से ज़िंदगी गुज़रती है। उसे सब काम अपने पति से पूछ कर करने पड़ते हैं, चाहे पति उससे बात किये बगैर ही बड़े से बड़ा फैसला ले ले।
हमारे समाज की पित्तरसत्ता सोच इस चीज़ की कहीं न कहीं मेन ज़िम्मेदार है। लोग समझते हैं कि पिता की प्रॉपर्टी पर बेटे का हक़ है न कि पत्नी, बहु या बेटी का। अगर बेटी अपने हिस्से की प्रॉपर्टी लेगी भी तो वो अपने घर में रहेगी, जिसके फैसले उसका पति लेगा। शुरू से ही मर्दों को डिसीज़न मेकिंग अथॉरिटी मिलती आयी है, जिसे आज तक आगे ले जाया जा रहा है। अगर पति की मृत्यु भी हो जाए तो बेटा चाहे छोटा ही हो, लेकिन घर की मुखिया पत्नी को नहीं बना सकते। इसका कारण पैट्रिआर्की ही बनती है।
कई बार मर्द प्रधान घर का कारण यह भी होता है कि मर्द पैसे कमाता है तो घर के डिसीज़न लेने का हक़ उसी के पास है। इसी चक्कर में कुछ लोग अपनी मुखिया कि गद्दी फिसल जाने के डर से औरत को कमाने नहीं देते। उन्हें लगता है कि अगर औरत कमाने के लिए घर से बाहर जाएगी तो उसकी ज़िंदगी के कुछ फैसले वो खुद लेने लगेगी और फाइनेंशिअली इंडेपेंडेंट हो जाएगी। उन्हें यह डर सताता है कि वो हमेशा उनके सामने नहीं रहेगी तो उसे कंट्रोल नहीं कर पाएंगे।
Ab Soch Badlo Yaar
अब समय आ गया है इस पित्तर सत्ता और छोटी सोच को खत्म करने का। अगर एक औरत किसी कंपनी की CEO, फाउंडर या मैनेजर हो सकती है तो उसे घर के डिसिशन लेने का हक़ होना चाहिए। एक तो घरों में मुखिया वाली रीत ख़तम हो और औरतों को अपने फैसले लेने के अधिकार मिलें। औरत अपने बच्चे को बचपन से बड़ा करती है और वो बच्चा ही बड़ा होकर माँ को बताता है कि हर फैसला में ही लूंगा।
पत्नी को भी अपनी मर्ज़ी से आने-जाने और जॉब करने की छूट मिलनी चाहिए। पत्नी सिर्फ रसोई का मेनू डिसाईड करने के लिए नहीं है। उसके भी कुछ सपने, ज़रूरतें और मांगें हैं। अगर पति चाहते हैं कि पत्नी सारे काम पूछ कर करे तो पति भी अपनी पत्नी से पूछ कर सारे डिसीज़नस ले सकता है।
हमें मुखिया बनने में कोई दिलचस्पी नहीं, बल्कि हमें अपनी ज़िंदगी अपनी शर्तों पर जीनी है, तो फिर चाहे हम शादी-शुदा हों या सिंगल। शादी और बच्चों का मतलब गुलामी नहीं होना चाहिए। पत्नी, बहु और बेटी कि ज़रूरतों और ख्वाहिशों पर पैट्रिआर्की का साया नहीं पड़ना चाहिए। अगर घर में हर इंसान अपने फैसले खुद ले सके तो घरों में बेहतर शांति और ख़ुशी प्रफुल्लित होगी। अगर किसी का फैसला पूरे परिवार को इम्पैक्ट करता है तो सब लोग आपस में बैठ कर डिसकस कर सकते हैं और किसी नतीजे पर पहुँच सकते हैं। लेकिन पूरे परिवार के सदस्यों की ज़िंदगी के फैसले एक ही इंसान करे, यह सही नहीं है।