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समाज में हमेशा महिलाओं से अवास्तविक उम्मीदें रखी जाती रही हैं। छोटी उम्र से ही उन्हें “परफेक्ट बेटी”, “आदर्श बहू”, और “सबका ध्यान रखने वाली मां” बनने की शिक्षा दी जाती है। यह सब एक साथ निभाने का दबाव उन पर इतना ज़्यादा होता है कि वे स्ट्रेस और सेल्फ-डाउट का शिकार हो जाती हैं। हर महिला को लगता है कि अगर वह इन सभी भूमिकाओं को पूरी तरह नहीं निभा पाई, तो वह एक अच्छी बेटी, बहू, मां या पत्नी नहीं बन पाएगी। लेकिन सच इस सोच से बिल्कुल अलग है। महिलाओं को पावरफुल बनने के लिए परफेक्ट बनने की कोई ज़रूरत नहीं है।
परफेक्ट बने बिना भी महिलाएँ पावरफुल कैसे हैं
परफेक्ट बनने का अपेक्षा
“परफेक्ट बनने” का आईडिया लंबे समय से महिलाओं को गुमराह करता आया है। यह उनके सामने एक ऐसा लक्ष्य रखता है जो असल में कभी हासिल नहीं हो सकता। सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि महिलाएँ इंसान हैं, मशीन नहीं। इस दुनिया में कोई भी व्यक्ति परफेक्ट नहीं होता। हर इंसान गलतियाँ करता है और यही गलतियाँ हमें सीखने और आगे बढ़ने का अवसर देती हैं। गलतियाँ करने से हम बुरे इंसान नहीं बन जाते, बल्कि यही हमें और मज़बूत बनाती हैं।
गलतियों से सीख और विकास
जब कोई महिला अपनी असफलताओं और गलतियों को बोझ मानने के बजाय उन्हें सीखने का अनुभव मानती है, तभी उसकी असली ग्रोथ शुरू होती है। पावरफुल बनने के लिए परफेक्ट बनने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि ज्यादा से ज्यादा अनुभव हासिल करने की ज़रूरत है। जब महिलाएँ अपनी यात्रा, असफलताओं और अपूर्णताओं को ईमानदारी से स्वीकारती हैं, तो यह न केवल उनकी ताकत बढ़ाता है, बल्कि दूसरी महिलाओं को भी प्रेरित करता है कि वे अपनी “इंपरफेक्शन” को अपनाएँ।
रेज़िलिएंस ही असली ताकत है
जब हम गिरकर दोबारा खड़े होते हैं, तो उसे Resilience कहते हैं। यही रेज़िलिएंस हमें पावरफुल बनाती है। हर किसी की उम्मीदों पर खरा उतरने की कोशिश करने से महिलाएँ पावरफुल नहीं बनतीं, बल्कि थक जाती हैं। लेकिन अगर एक महिला लगातार आलोचना के बावजूद अपने सपनों को पूरा करने में जुटी रहती है, अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाती है और किसी से डरती नहीं है, तो वही असली मायनों में पावरफुल महिला है। भले ही उसका जीवन परफेक्ट न हो, लेकिन उसमें इतना साहस है कि वह अपनी गलतियों को स्वीकार कर सके और उनसे सीखकर आगे बढ़ सके।
परफेक्शन नहीं, ऑथेंटिसिटी है ज़रूरी
परफेक्शन का मतलब है खुद को सीमाओं में बांध लेना। लेकिन जब महिलाएँ खुद को खुला छोड़ देती हैं और गलतियों की भी जगह रखती हैं, तो वे अपनी ज़िंदगी को ज़्यादा एंजॉय कर पाती हैं। उन पर यह दबाव नहीं रहता कि “सब कुछ परफेक्ट करना है”। वे जीवन को अलग-अलग तरीकों से जीने की कोशिश करती हैं और अपनी ज़िंदगी को और अधिक ऑथेंटिक तरीके से जीती हैं। इससे न केवल उनकी खुशी और सेहत बेहतर होती है, बल्कि वे एक संतुलित और क्वालिटी लाइफ जी पाती हैं।
पावरफुल बनने के लिए महिलाओं को परफेक्ट बनने की ज़रूरत नहीं है। असली ताकत तब आती है जब वे अपनी अपूर्णताओं को अपनाकर, गलतियों से सीखकर और रेज़िलिएंस दिखाकर आगे बढ़ती हैं। समाज के बनाए “परफेक्ट औरत” के ढांचे में फिट होने की बजाय, अपनी असली पहचान और ऑथेंटिसिटी के साथ जीना ही महिलाओं को सशक्त बनाता है।