Let's Talk Openly: "पीरियड्स पर बात मत करो, किचेन में मत जाओ" समाज ये सब कहता है, पर क्यों? किस आधार पर?

समाज में पीरियड्स को लेकर आज भी कई गलत धारणाएं बनी हुई हैं, जो महिलाओं के आत्मविश्वास और स्वतंत्रता को प्रभावित करती हैं। क्या वाकई यह सिर्फ एक शारीरिक प्रक्रिया है, या समाज ने इसे एक रुकावट बना दिया है?

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Vaishali Garg
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Lets Talk Openly Periods And Patriarchy

Lets Talk Openly Periods And Patriarchy

Lets Talk Openly Periods And Patriarchy: कुछ दिन पहले मैंने और मेरे दोस्तों ने Mrs देखी। यह फिल्म सिर्फ एक कहानी नहीं है, बल्कि समाज का आईना है। जब फिल्म में रिचा को उसके ही घर में ‘अशुद्ध’ मानकर किनारे कर दिया जाता है, तो हम सब एक पल के लिए चुप हो गए। हममें से हर किसी ने कभी न कभी इस तरह के हालात देखे थे अपने घर में, रिश्तेदारों के बीच, या किसी दोस्त के अनुभवों में। फिल्म खत्म होने के बाद हमने इस बारे में चर्चा की और यह महसूस किया कि जितना हम सोचते हैं, यह समस्या उससे कहीं ज़्यादा गहरी है।

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क्या पीरियड्स वाकई कोई 'गंदी' चीज़ है?

हमारे समाज में मासिक धर्म को लेकर जो अवधारणाएं फैलाई गई हैं, वे किसी वैज्ञानिक सच्चाई पर आधारित नहीं हैं, बल्कि सदियों पुरानी पितृसत्तात्मक सोच का नतीजा हैं। पीरियड्स महिलाओं के शरीर की एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, ठीक वैसे ही जैसे सांस लेना, खाना खाना या नींद लेना। लेकिन फिर भी, इसे लेकर जितनी चुप्पी और शर्म फैलाई गई है, उतनी शायद ही किसी और शारीरिक प्रक्रिया के लिए हो। फिल्म में जब रिचा को पीरियड्स के दौरान घर के कुछ हिस्सों से दूर रहने के लिए कहा जाता है, तो यह उस मानसिकता को दर्शाता है जो आज भी हमारे समाज में गहरी जमी हुई है।

मैंने अपने दोस्त आदित्य से पूछा, "अगर पुरुषों को हर महीने पीरियड्स होते, तो क्या समाज की यही सोच होती?" उसने हंसते हुए कहा, "शायद नहीं! हो सकता है तब इसे 'मर्दानगी की निशानी' बना दिया जाता और इसके लिए सरकारी छुट्टी तक मिलती।" उसकी बात मज़ाकिया थी, लेकिन कड़वी सच्चाई भी थी। यह असमानता पितृसत्ता की देन है, जिसने महिलाओं की इस सामान्य प्रक्रिया को कमजोरी और शर्म से जोड़ दिया।

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इतिहास गवाह है, पीरियड्स को हमेशा 'नजरअंदाज' किया गया है

अगर हम इतिहास के पन्नों को पलटें, तो अलग-अलग संस्कृतियों में मासिक धर्म को लेकर अलग-अलग धारणाएं रही हैं। वैदिक काल में इसे एक शुद्धिकरण प्रक्रिया माना जाता था, लेकिन समय के साथ पितृसत्तात्मक नियमों ने इसे ‘अशुद्धता’ से जोड़ दिया। भारत ही नहीं, मध्यकालीन यूरोप में भी पीरियड्स को ‘पाप’ से जोड़कर महिलाओं को अलग-थलग रखा जाता था। अफ्रीका और एशिया के कई हिस्सों में आज भी महिलाएं पीरियड्स के दौरान झोपड़ियों में रहने को मजबूर की जाती हैं।

समस्या यह नहीं है कि ये मान्यताएं कभी अस्तित्व में थीं, बल्कि समस्या यह है कि विज्ञान और जागरूकता के इस दौर में भी वे ज़िंदा हैं। जब हमने इस पर बात की, तो मेरी राजवीर ने कहा, "बचपन से हमें सिखाया गया कि पीरियड्स के बारे में खुलकर बात नहीं करनी चाहिए। पैड खरीदते वक्त भी दुकानदार उसे अखबार में लपेटकर देता है, ताकि कोई देख न ले। क्या यह छिपाने लायक चीज़ है?" उसकी यह बात सच में सोचने पर मजबूर करने वाली थी। आखिर क्यों एक ऐसी चीज़, जो आधी आबादी के जीवन का हिस्सा है, उसे 'गुप्त' और 'शर्मनाक' बना दिया गया है?

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क्या पीरियड्स से जुड़ी पुरानी धारणाएं आज भी महिलाओं की राह रोक रही हैं?

समाज में पीरियड्स को लेकर जो गलत धारणाएं बनी हुई हैं, वे सिर्फ घर के अंदर ही नहीं, बल्कि महिलाओं के व्यक्तिगत और पेशेवर जीवन पर भी असर डालती हैं। कई जगहों पर आज भी महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान कुछ खास जगहों से दूर रहने के लिए कहा जाता है, जिससे यह साफ दिखता है कि पीरियड्स को एक ‘बाधा’ के रूप में देखा जाता है, न कि एक सामान्य प्रक्रिया के रूप में।

फिल्म में जब रिचा को घर के कुछ हिस्सों में जाने से रोका जाता है, तो यह सिर्फ एक सीन नहीं, बल्कि हमारे समाज की सच्चाई है। इस एक सोच की वजह से लाखों महिलाएं अपने ही घरों में अजनबी जैसी महसूस करती हैं। मेरी दोस्त साक्षी ने इस पर बहुत सीधी बात कही "हम खुद को सीमित कर लेते हैं क्योंकि हमें बचपन से यही सिखाया जाता है कि पीरियड्स के दौरान हमें अलग रहना चाहिए। लेकिन क्या किसी ने कभी सोचा कि यह मानसिकता हमारे आत्मविश्वास को कैसे कमजोर करती है?"

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यह सवाल सिर्फ घर तक सीमित नहीं है। जब स्कूलों में लड़कियां पीरियड्स के दौरान असहज महसूस करती हैं, ऑफिस में महिलाएं छुट्टी मांगने से डरती हैं, और सार्वजनिक जगहों पर भी उन्हें पर्याप्त सुविधाएं नहीं मिलतीं, तो यह एक बड़ी समस्या बन जाती है। समाज में गहराई से जमीं ये धारणाएं ही महिलाओं की राह में सबसे बड़ी रुकावट हैं।

क्या बदलाव मुमकिन है, या हम यूं ही चुप रहेंगे?

समाज बदल सकता है, लेकिन उसके लिए हमें खुद से शुरुआत करनी होगी। जब तक हम खुद इन बातों को स्वीकारेंगे और इनके खिलाफ आवाज़ उठाएंगे नहीं, तब तक कुछ भी नहीं बदलेगा। यह सिर्फ महिलाओं का नहीं, पूरे समाज का मुद्दा है। लड़कियों को शिक्षित करने के साथ-साथ लड़कों को भी इस विषय पर संवेदनशील बनाना ज़रूरी है। अगर हमने पीरियड्स को लेकर अपनी सोच नहीं बदली, तो हमारी आने वाली पीढ़ियां भी यही भेदभाव झेलेंगी।

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फिल्म Mrs ने हमें सोचने पर मजबूर किया, लेकिन सोचने से ज़्यादा ज़रूरी है कुछ करना। अब सवाल यह है की क्या हम अपनी बेटियों, बहनों और दोस्तों के लिए एक बेहतर समाज बना सकते हैं, या फिर आने वाली पीढ़ियां भी यही लड़ाई लड़ती रहेंगी? अब वक्त है, Let's Talk Openly

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