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भारत में बेटियों का जन्म जितनी खुशी लेकर आता है, उतनी ही जल्दी उनके भविष्य, खासकर शादी को लेकर चिंता भी शुरू हो जाती है। यह चिंता सिर्फ माता-पिता तक सीमित नहीं रहती, बल्कि पूरे समाज को अपने अंदर समेट लेती है। लेकिन सवाल यह है कि आखिर लड़की के पैदा होते ही उसकी शादी की फिक्र क्यों शुरू हो जाती है? क्या उसकी पहचान सिर्फ एक पत्नी बनने तक सीमित है? या फिर समाज की जड़ें इतनी गहरी हैं कि हमें इस सोच पर दोबारा विचार करने की जरूरत भी महसूस नहीं होती?
Indian Society: लड़की के पैदा होते ही उसकी शादी की चिंता क्यों शुरू हो जाती है?
परवरिश से ज्यादा दहेज की चिंता
भारतीय समाज में बेटी के जन्म के साथ ही माता-पिता उसके दहेज और शादी के खर्च की चिंता में पड़ जाते हैं। चाहे परिवार किसी भी आर्थिक स्तर का हो, लेकिन लड़की की शादी का सवाल हमेशा सिर पर लटकती तलवार की तरह रहता है। "बिटिया बड़ी हो रही है, उसके हाथ पीले करने की तैयारी करो," जैसे जुमले सुनने की आदत हमें इतनी पड़ चुकी है कि हम इसे समस्या मानते ही नहीं हैं। पर क्या यह सही है? एक लड़की की परवरिश में उसके शिक्षा, करियर और आत्मनिर्भरता से ज्यादा शादी की चिंता क्यों प्राथमिकता ले लेती है?
बेटा "घर का चिराग", बेटी "पराया धन" क्यों?
समाज में बेटों को "घर का चिराग" माना जाता है, जबकि बेटियों को "पराया धन"। बचपन से ही सिखाया जाता है कि "बेटियां तो पराई होती हैं," यानी उन्हें एक दिन शादी करके दूसरे घर जाना ही है। इस मानसिकता के कारण माता-पिता खुद को बेटी की पढ़ाई-लिखाई और करियर पर कम, बल्कि उसकी शादी पर ज्यादा केंद्रित कर लेते हैं। यह सोच न केवल बेटी की आजादी छीनती है, बल्कि उसकी पहचान को सिर्फ एक पत्नी और बहू बनने तक सीमित कर देती है।
समाज का "अच्छी लड़की" वाला दबाव
लड़की के पैदा होते ही उसके संस्कार, आचरण और चरित्र पर ध्यान दिया जाने लगता है ताकि उसे एक "अच्छी बहू" बनाया जा सके। "ज्यादा मत हंसो, लड़कियों को शालीन होना चाहिए," "रात में बाहर मत जाओ, अच्छे घर की लड़कियां ऐसे नहीं करतीं," जैसे कथन हर लड़की की परवरिश का हिस्सा होते हैं। समाज का यह दबाव लड़की के आत्मविश्वास को कमजोर करता है और उसे यह विश्वास दिलाता है कि उसकी जिंदगी का सबसे बड़ा लक्ष्य एक अच्छी पत्नी और बहू बनना ही है।
बदलाव की जरूरत है!
समय बदल रहा है, और यह सोच भी बदलनी चाहिए। लड़कियां अब खुद के लिए शिक्षा, करियर और आत्मनिर्भरता को प्राथमिकता दे रही हैं। शादी जरूरी है या नहीं, यह व्यक्तिगत चुनाव होना चाहिए, न कि समाज द्वारा थोपा गया बोझ। शादी को किसी लड़की के जीवन का अंतिम लक्ष्य मानना बंद करना होगा।
बेटियों को उनकी पहचान सिर्फ शादी तक सीमित नहीं करनी चाहिए। उन्हें भी यह हक मिलना चाहिए कि वे अपनी जिंदगी खुद के नियमों पर जिएं, बिना यह सोचे कि समाज क्या कहेगा। बदलाव की शुरुआत हमारी मानसिकता से होगी। सवाल सिर्फ इतना है—हम इस बदलाव के लिए तैयार हैं या नहीं?