यह विडंबना है कि जिस समाज में हम जीते हैं, वहाँ बेटियों की शिक्षा को एक महान कार्य और बेटों की शिक्षा को मात्र एक सामान्य कर्तव्य माना जाता है। बेटी को पढ़ाने पर अक्सर परिवार और समाज वाहवाही बटोरते हैं, जैसे उन्होंने कोई बहुत बड़ा त्याग किया हो। जबकि बेटों की पढ़ाई को ऐसा सामान्य कार्य मान लिया जाता है, जैसे कि यह उनका जन्मसिद्ध अधिकार हो। आखिर क्यों बेटियों को शिक्षा देने पर यह समाज गर्व महसूस करता है, और बेटों को पढ़ाने पर कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया जाता?
बेटी को पढ़ाने पर सराहना, बेटे को पढ़ाना कर्तव्य क्यों?
बेटियों की शिक्षा पर वाहवाही क्यों?
जब भी कोई बेटी उच्च शिक्षा प्राप्त करती है, या उसके माता-पिता उसे शिक्षित करने का निर्णय लेते हैं, तो समाज उसकी प्रशंसा करता है। क्या हमें बेटी की शिक्षा को भी सामान्य मानदंड नहीं बनाना चाहिए, बजाय इसके कि उसे एक उपलब्धि के रूप में देखा जाए? यह सोच कहीं न कहीं समाज की उस पुरानी मानसिकता से जुड़ी हुई है, जहाँ महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखा जाता था। जब इस मानसिकता से उभरने की कोशिश होती है, तो इसे एक बड़ी बात के रूप में पेश किया जाता है, जैसे कि कुछ विशेष किया गया हो।
बेटों की शिक्षा को सामान्य क्यों माना जाता है?
दूसरी ओर, जब बात बेटों की शिक्षा की आती है, तो समाज इसे एक सामान्य जिम्मेदारी के रूप में देखता है। क्या बेटों को पढ़ाना सिर्फ परिवार का कर्तव्य है, और इसमें कोई विशेष प्रयास नहीं होता? बेटों की शिक्षा को लेकर समाज में इतनी सहजता क्यों है, जबकि बेटियों की शिक्षा को अलग नजरिए से देखा जाता है? यह सोच बताती है कि समाज आज भी बराबरी के उस स्तर तक नहीं पहुँचा है, जहाँ लड़के और लड़कियों को एक ही दृष्टिकोण से देखा जाए।
बेटियों के लिए शिक्षा विशेष क्यों मानी जाती है?
ऐतिहासिक रूप से, महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखा गया था, और यह मान्यता थी कि उनका स्थान घर में है। हालांकि आज समय बदल चुका है, लेकिन समाज की मानसिकता अभी भी पूरी तरह से नहीं बदली है। क्या यह सोच अब भी बरकरार है कि शिक्षा केवल पुरुषों का अधिकार है, और महिलाओं को शिक्षित करना एक ‘महान’ कार्य है? इस सोच को बदलने की आवश्यकता है, ताकि लड़कियों को शिक्षित करना उतना ही सामान्य हो जाए, जितना लड़कों को शिक्षित करना।
समाज कब बदलेगा?
समाज में इस दोहरे मापदंड को खत्म करने का समय आ गया है। क्या हम एक ऐसे समाज की कल्पना कर सकते हैं, जहाँ बेटी और बेटे की शिक्षा को बराबरी का दर्जा मिले? बेटियों को पढ़ाने पर सराहना करना ठीक है, लेकिन यह तब तक नहीं बदलेगा जब तक इसे सामान्य और स्वाभाविक कार्य के रूप में नहीं देखा जाता।
बदलाव की आवश्यकता
समाज को यह समझने की आवश्यकता है कि शिक्षा सभी का अधिकार है, चाहे वह बेटा हो या बेटी। क्या हम इस धारणा से बाहर आ सकते हैं कि बेटियों की शिक्षा विशेष है और बेटों की शिक्षा सामान्य? जब हम इस सोच को बदलेंगे, तभी हम एक समतावादी समाज का निर्माण कर सकेंगे, जहाँ हर बच्चे को समान अवसर मिलेंगे, और शिक्षा को केवल कर्तव्य या विशेष कार्य के रूप में नहीं देखा जाएगा।
समाज को इस दोहरे मापदंड से बाहर आना होगा। क्या हम बेटियों और बेटों की शिक्षा को एक समान रूप से देख सकते हैं? परिवार का कर्तव्य केवल बेटों तक सीमित नहीं होना चाहिए, और बेटियों की शिक्षा को एक उपलब्धि के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। जब यह सोच बदलेगी, तब ही हम एक प्रगतिशील और समतावादी समाज की ओर बढ़ेंगे, जहाँ हर बच्चे को उसके हक का अधिकार मिलेगा।