What Is The Story Behind Lohri Celebration? : लोहड़ी का त्योहार उत्तर भारत में खासकर, पंजाब, हरियाणा और हिमाचल में अपने-अपने तरीके से बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। इसे मकर सक्रांति से एक दिन पहले, खासकर 13 या 14 जनवरी के आस-पास मनाया जाता है। इसमें लोग रात को एक जगह पर इकट्ठे हो कर लकड़ियां और उपले जलाते हैं, लोक गीत गाते हैं और मूंगफली रेवड़ियां खाते हैं।
लोहड़ी मनाने के पीछे क्या है कहानी?
इस दिन बच्चे से लेकर बूढ़े तक का मन उत्साह से भर जाता है। छोटे-छोटे बच्चे घर-घर जाकर लोहड़ी के गीत गाते हैं और लोग उन्हें मूंगफली, रेवड़ियां और पैसे शगुन के तौर पर देते हैं। आइए जानते हैं कि इस त्योहार को मनाने के पीछे की कहानी क्या है।
दुल्ला भट्टी
कहा जाता है कि मुग़ल बादशाह अकबर के समय दुल्ला भट्टी नाम का एक जिमींदार डाकू हुआ करता था जो अमीरों को लूटता था और गरीबों में बांटता था। उसके इलाके के लोग उसे बहुत प्यार करते थे और इज्ज़त देते थे। उस समय लड़कियों को बाजार में बेचा जाता था और दुल्ला उन लड़कियों को बचा कर उनकी शादी करवा देता था। इस तरह उसने कई लड़कियों की शादी करवाई थी। इस लिए लड़कियां उसको अप्रीशिएट करने के लिए आग जलाकर उसकी स्तुति करती थीं और उसके नाम के गाने गाती थीं। आज भी उसी तरह मूंगफली, गुड़ और रेवड़ियों के साथ लड़कियां और बच्चे घर-घर जाकर उसका गाना गाते हैं। यह गाना आज भी उसी तरह गाया जाता है -
'सुंदर मुंदरिये - हो
तेरा कौन विचारा - हो
दुल्ला भट्टी वाला - हो
दुल्ले धी व्याही - हो
सेर सक्कर पाई - हो'
आज भी लोहड़ी के दिन पर बच्चे और कुंवारे लड़के और लड़कियां घर-घर जाकर यह गाना गाते हैं और खासकर जिन घरों में लड़के का जन्म हुआ हो या लड़के की शादी हो, वो लोग दिल खोल कर बच्चों को शगुन देते हैं और लोहड़ी में जलने वाली अग्नि की पूजा करते हैं।
सर्दी के अंत की शुरुआत
लोहड़ी का त्योहार देशी महीनों के पोष महीने के आखिरी दिन मनाया जाता है, जो कि बहुत ही सर्दी का प्रतीक है। पुराने समय में लोग इस महीने के अंत के साथ सर्दी के खत्म होने की कामना करते थे और भगवान से प्रार्थना करते थे कि अब सर्दी खत्म हो और उन्हें अपने खेतों के काम करने की हिम्मत मिले।
सूर्य और अग्नि की पूजा
लोहड़ी का त्योहार मकर सक्रांति से पहले की शाम को इसलिए मनाया जाता है कि सूरज मकर राशि में जाता है और उत्तर की तरफ मूव होता है। उत्तर भारत में कड़ाकेदार सर्दी पड़ने के बाद लोहड़ी के बाद सर्दी कम होने की आशा होती है, इसकी वजह सूरज की बदलती हुई स्थिति को भी समझा जाता है। लोग इस रात अग्नि के सामने बैठ कर यह गाना भी गाते हैं - 'ईशर आए, दलिद्दर जाए। दलिद्दर दी जरह चुल्ले पाए। जिसका अर्थ है कि लोग कामना करते हैं कि सर्दी की वजह से जो लेज़ीनेस और दरिद्रता लोगों में आ गयी है, वो अब खत्म हो जाए और ईश्वर खुद आकर दरिद्रता की जड़ को खत्म कर दें।
लोग सूरज और आग को गर्मी और ऊर्जा का प्रतीक समझते हैं और इनकी पूजा करते हैं। यह सर्दी के अंत की शुरुआत होती है और सर्दियों की फसल काटने का समय भी होता है। लोग पुराने समय से इस त्योहार के ज़रिये सूरज और आग से ऊर्जा प्राप्ति की कामना करते आ रहे हैं।