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संस्कृति का उद्देश्य समाज का विकास, आपस मे जुड़ाव और न्याय सुनिश्चित करना होता है। संस्कृति गौरव का विषय होती हैं, लेकिन जब संस्कृति एक वर्ग और एक लिंग के लिए भेदभाव और अधिकारों से वंचित रखने की दृष्टि रखें तो वहाँ सवाल उठाना आवश्यक बन जाता है। महिलाएं संस्कृति का आधार कहीं जाती हैं, लेकिन मानवीय अधिकार जो उनका मूल अधिकार हैं उनसे भी वंचित दिख जाती हैं। शिक्षा, समानता, और निर्णय लेने का अधिकार संविधान के द्वारा होने पर भी समाज में संस्कृति के नाम पर उन्हें सीमा में रहने को कहा जाता हैं और अगर ऐसा न करे तो उन्हें परिवार से निष्काषित करना या प्रताड़ित करना देखा जा सकता हैं जो मानवीय गरिमा का हनन ही नहीं, उनके अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा कर देता है।
संस्कृति के नाम पर महिलाओं को अधिकारों से वंचित करना कितना सही है?
संस्कृति बनाम संविधान
भारतीय सविधान का Article 14,15 और 21 महिलाओं को समानता, स्वतंत्रता और गरिमा का अधिकार देता हैं। लेकिन आज भी समाज के की तबकों मे महिलाओं को संपंत्ति, शिक्षा, और निर्णय लेने के अधिकारों से वंचित किया जाता हैं।
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने आदिवासी महिलाओं को उनके मूल अधिकारों से वंचित करने को लेकर समय के साथ रीति रिवाज को बदलने को कहा। इससे स्पष्ट होता हैं कि देश की संस्थाएं प्रगति को अपना रहीं हैं लेकिन समाज आज भी वहीं अपनी पीड़ित सोच मे अटका हुआ दिख जाता हैं।
संस्कृति का पुनर्गठन
संस्कृति और नारी के विषय में अक्सर नारी को शोषित होते देखा जाता हैं। संस्कृति कोई स्थिर वस्तु नहीं, समाज मे बदलते अनुभवों और मूल्यों के विकास के साथ उसमे भी जुड़ाव और घटाव होता हैं। जब महिलाएं आवाज उठाती हैं तो सही अर्थों मे समाज को दिशा देती हैं और संस्कृति मे नए पक्ष का उदय होता हैं। समानता का अधिकार और गरिमा का अधिकार को संस्कृति में स्वीकार करना ही वास्तविक बदलाव हैं ।
आवाज उठाना क्यों हैं आवश्यक ?
यदि दबाब और डर से कोई भी वर्ग आवाज नहीं उठाएगां, तो समाज और संस्कृति का सम्पूर्ण विकास नहीं होता हैं। जब महिलाएं अपनी आवाज उठाती हैं तो समाज और संस्कृति को नई दिशा मिलती हैं। संस्कृति का सम्मान तभी सार्थक हैं जब वह सभी को समान अधिकार और अवसर दें। महिलाओं को दबाने वाली परम्पराएं संस्कृति नहीं, बल्कि संस्थागत भेदभाव है।
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