Patriracy Norm: क्यों आज भी महिलाओं को पति की "हां" में हां मिलानी होती हैं ?

आज भी समाज में महिलाओं को शादी के बाद पति की हाँ में हाँ मिलानी होती हैं चाहे वह उनके जीवन के सबसे महत्वपूर्ण निर्णय से जुड़ा हों जिसे लेने का अधिकार वह स्वयं रखती हैं लेकिन उन्हें उनकी इच्छा के आगे सामाजिक रीति-रिवाज को मानना पड़ता हैं, लेकिन क्यों ?

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Nainsee Bansal
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Arranged Marriage(Freepik)

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आज भी समाज में महिलाओं की इच्छा को उनके पिता या पति की इच्छा के सामने दूसरा स्थान दिया जाता हैं, यदि उनके guardian के तौर पर उन्हें हाँ मिले तो वह उस काम के लिए मंजूरी देता हैं यदि नहीं तो उनकी इच्छा का सम्मान नहीं किया जाता हैं। लेकिन प्रश्न हैं कि क्या महिला का अपना जीवन नहीं ? उसकी अपनी विचार या अभिव्यक्ति नहीं? समाज में यदि महिला रात को बाहर निकलती हैं या किसी सामाजिक गतिविधि में हिस्सा लेती हैं तो अक्सर उससे पूछा जाता हैं- "क्या पति को बताकर आई हैं ?" लेकिन क्या महिला का अपना जीवन नहीं या उसकी अपनी जिंदगी पर अधिकार नहीं जो उसे पति की सहमति चाहे वह काम छोटा हो या बड़ा लेनी ही होंगी ?

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Patriracy Norm: क्यों आज भी महिलाओं को पति की "हां" में हां मिलानी होती हैं ?

क्यों आज भी महिलाओं को पति की सहमति और हाँ की है जरूरत ?

जब एक महिला चाहे रिश्ते में अपनी बात रखना चाहती हो या परिवार में अपनी भूमिका को बदलना चाहती हो उसे अक्सर पति से मसवहार करना पड़ता हैं, कुछ हद तक यह सही भी लगता हैं लेकिन जब उसकी "न" या उसकी सहमति को उतने सम्मान से न देखा जाएं जितना आवश्यक हैं, यह उसे भावनात्मक रूप से शोषित भी करता हैं, और उसे आत्मग्लानि से भर भी देता हैं, लेकिन प्रश्न उठता हैं कि "क्या यह उसकी इच्छा का अपमान हैं?" 

हाँ
हैं, यह उसकी इच्छा का अपमान भी हैं, साथ ही यह समाज की व्यवस्था जो पुरुष को नारी के निर्णय चाहे वो समाजिक हो या निजी उस पर स्वामित्तव होने के चलन पर प्रश्न भी हैं, कि "क्या आज भी पुरुषवादी रूढ़ियाँ इतनी प्रभावशाली हैं कि नारी की इच्छा मायने ही न रखती हो?"

समाज किसका पोषण करता हैं- शोषक का या शोषित का ?  

समाज अक्सर शोषित कर्ता को सदैव पोषित करता आया हैं चाहे वह पुरुष हो या किसी प्रभावशाली वर्ग को ऊंचाई देना, समाज के इसी पुरुषवादी समाज (patriachal society) के चलन ने नारी को पीछे धकेल दिया हैं, लेकिन जब नारी को अपने जीवन में झाँकने का मौका मिलता हैं तो वह स्वयं से प्रश्न करती हैं कि वह स्वयं इतनी सशक्त क्यों नहीं बन पाई? क्यों वह अपने निर्णय के लिए पति पर निर्भर रहीं?

यह निर्भरता उसकी निर्भरता नहीं सामाजिक चलन और समाज से पोषित थी कि जब उसकी इच्छा सिर्फ एक ऐसा मत रह गई जो डाला जाता हैं सिर्फ स्वयं की झूठी संतुष्टि के लिए। 

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आज भी महिलाएं रिश्तों में घुटन होने पर भी उन्हें चलाती हैं या उनकी "हाँ" में "हाँ" मिलाती हैं क्योंकि समाज द्वारा उन्हें रिश्ते को चलाने और रिश्तों मे चुप रहने की सलाह खूब दी जाती हैं। और समाज के अनुसार आदर्श पत्नी वह हैं "जो हमेशा पति की हाँ में हाँ मिलाएं और अपनी इच्छा को दूसरा स्थान दें।"

लेकिन क्यों महिला की इच्छा का सम्मान नहीं ?

यह प्रश्न उसके जीवन में बनें नियमों और उसके पालन के समय जो उसे सिखाया गया उस पर आधारित हैं, और विवाह के समय नारी को पति को सौंपा जाता हैं कि दोनों को एक बंधन में बांधा जाता हैं। पत्नी को पति की संपत्ति समझा जाता हैं, न की एक स्वयं की स्वतंत्र अभिव्यक्ति और चेतना। समाज को अपने नियम तो बदलने चाहिए लेकिन साथ ही यह "हाँ" में "हाँ" मिलाने का चलन इसी ढर्रे से कब तक चलेगा?

जब एक नारी शिक्षित होती हैं तो वह मान्यताओं पर प्रश्न ही नहीं उन्हें जड़ से हटाने का प्रयास भी करती हैं, और यह सपत्ति और अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रश्न आज की नारी के समय चलना तो नहीं चाहिए, पर फिर भी आज यह प्रश्न उठ रहा हैं क्योंकि आज भी नारी की स्वतंत्रता कहीं न कहीं शोषित हो रही हैं जिसकों आवाज मिलना आवश्यक हैं। आज की नारी शिक्षा के साथ साथ परिपक्व भी बनें विचारों से भी और करनी से भी, क्योंकि विचार उसे आंतरिक मजबूती देंगे और करनी शारीरिक। आज की नारी  की हाँ को हाँ और न को न ही समझा जाएं, यह भावनाओं का मायाजाल उस पर न फेका जाएं, क्योंकि सहने की सीमा एक दिन स्वयं समाप्त हो जाती हैं। 

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No patriachal society