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मैं, प्रिया एन. सिंगल, 43 साल की थी जब पहली बार लगा कि कुछ तो बदल रहा है। ग़लत नहीं… बस अलग। जैसे मैं वही हूँ, पर मेरे शरीर की सेटिंग्स किसी ने चुपके से बदल दी हों। नींद, जो मेरी सुपरपावर थी, अब जंग का मैदान बन गई। रात के 2 बजे मैं जाग जाती बेचैन नहीं, लेकिन दिमाग़ ऐसे घूमता जैसे पंखा तेज़ पर अटका हो। छोटी-छोटी बातें चिड़चिड़ा देने लगीं… शोर, बिखराव, और हर वक़्त ये अहसास कि सबको मुझसे कुछ चाहिए।
किसी ने नहीं बताया कि Perimenopause आने वाला है
तनाव या कुछ और?
पहले मैंने सोचा ये बस तनाव है। काम बहुत था। बेटी टीनएज में थी और सीमाएँ तोड़ रही थी। माँ की तबीयत भी ठीक नहीं। शायद यही सब वजह थी। मैंने सोचा—शायद बस छुट्टी चाहिए लेकिन छुट्टी से कुछ नहीं बदला। न योग से, न नया गद्दा खरीदने से। यहाँ तक कि मेडिटेशन से भी नहीं।
पहली बार सुना—पेरिमेनोपॉज़
फिर एक दिन, कॉफ़ी पर बैठी एक दोस्त ने धीरे से कहा—“पेरिमेनोपॉज़।” मैंने कभी सोचा भी नहीं था। मुझे हॉट फ्लैश नहीं हो रहे थे। पीरियड्स भी पूरे ख़त्म नहीं हुए थे। और मैं “इतनी छोटी” तो थी, है ना?
जब सब समझ में आने लगा
तभी मैंने पढ़ना शुरू किया। और धीरे-धीरे सब समझ में आने लगा—ब्रेन फॉग, भूलना, मूड का अनिश्चित रहना। इसका नाम था। इसके पीछे विज्ञान था। मैं टूटी हुई नहीं थी, बस एक बदलाव से गुज़र रही थी।
एस्ट्रोजन की ताक़त
पढ़ते-पढ़ते एक शब्द बार-बार सामने आया—एस्ट्रोजन। नाम तो पहले सुना था, लेकिन कभी इसकी ताक़त समझी नहीं थी। एस्ट्रोजन सिर्फ़ पीरियड्स या प्रजनन से जुड़ा नहीं है। ये हमारे मूड, याददाश्त, त्वचा, हड्डियों और यहाँ तक कि तनाव झेलने की क्षमता तक को प्रभावित करता है। जब पेरिमेनोपॉज़ में इसका स्तर गिरना शुरू होता है, तो पूरा शरीर जैसे हल्का-सा बेसुरा हो जाता है।
मेरा टर्निंग प्वाइंट
ये समझना मेरे लिए टर्निंग प्वाइंट था। मैं पागल नहीं थी। मैं कमज़ोर नहीं थी। मेरा शरीर बस नए संतुलन में आ रहा था। और ये जानकर मैंने प्रतिक्रिया बदल दी—खानपान सुधारा, सही सप्लीमेंट लिए, डॉक्टर से खुलकर बात की। अब समझ में आया कि हॉर्मोनल हेल्थ कोई साइड इश्यू नहीं, ये मेरी ज़रूरत है।
सबसे बड़ा सवाल—क्यों कोई नहीं बताता?
लेकिन जो सबसे गहरी चोट लगी, वो ये थी—किसी ने पहले कभी इस बारे में बात क्यों नहीं की? न डॉक्टर ने, न माँ ने, न ही उन तमाम आर्टिकल्स और हेल्थ चैट्स में जिन्हें मैं सालों से पढ़ती रही। जैसे औरतों की ज़िंदगी का पूरा एक चैप्टर मिटा दिया गया हो या सिर्फ़ फुसफुसाकर बताया जाता हो।
बोलना शुरू किया
तभी मैंने बोलना शुरू किया। दोस्तों से, दफ़्तर की महिलाओं से, उन नौजवान लड़कियों से जो अगली होंगी। और धीरे-धीरे मैंने खोजा—एक बहनापा। थकी हुई, हाँ, लेकिन और भी समझदार, नुकीली और मज़बूत महिलाएँ। जो अब तक खामोशी में जूझ रही थीं। जिन्हें बस ये जगह चाहिए थी कि वो कह सकें,“मैं अपने जैसी नहीं लग रही और मुझे नहीं पता क्यों।”
अपनी जगह बनाना
अब मैं अपने लिए जगह बनाती हूँ। अलग सवाल पूछती हूँ। खाने को सज़ा नहीं, पोषण मानती हूँ। सप्लीमेंट्स लेती हूँ। शरीर को चलाती हूँ। जिन दिनों ताक़तवर महसूस करती हूँ, उन्हें जी भरकर जीती हूँ। और जिन दिनों नहीं कर पाती, खुद को माफ़ कर देती हूँ।
ये अंत नहीं, शुरुआत है
ये किसी चीज़ का अंत नहीं है। ये एक नई शुरुआत है। एक रीसेट और मैं धीरे-धीरे सीख रही हूँ कि मिडलाइफ़ की औरत होना मिटने के बारे में नहीं है—ये और साफ़, और बहादुर होकर उठने के बारे में है।
अब चुप्पी नहीं
किसी ने नहीं बताया था कि ये आने वाला है। लेकिन अब जब मुझे पता चल गया है, तो मैं कभी भी इसके बारे में चुप नहीं रहूँगी।