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Dia Mirza at the Fabulous Over Forty Festival Photograph: (SheThePeople Copyright Image)
भारत में जब आप चालीस की उम्र पार करती हैं, तो समाज अक्सर आपके हाथ में एक चुपचाप लिखा हुआ स्क्रिप्ट थमा देता है जैसे पर्दे के पीछे हो जाना, सबका ख़याल रखना, और अपनी सेहत व सपनों को पीछे रखना। ‘फ़ैब्युलस ओवर फ़ोर्टी’ फेस्टिवल ने इसी स्क्रिप्ट को फाड़ने का काम किया। मुंबई में आयोजित इस आयोजन में 45 स्पीकर्स और 350 महिलाओं ने खुलकर हार्मोन, स्वास्थ्य, पहचान और अवसरों पर बातचीत की। यह सिर्फ़ एक कॉन्फ़्रेंस नहीं था बल्कि एक सामुदायिक क्षण था, एक घोषणा कि मिडलाइफ़ कोई संकट नहीं बल्कि एक नया जन्म है।
विज्ञान और सिस्टरहुड: भारत का पहला मेनोपॉज़ फेस्टिवल
“महिलाओं को अपनी सेहत के विज्ञान पर खुलकर बात करने के लिए एक सुरक्षित जगह की ज़रूरत है। हमारा उद्देश्य था कि डॉक्टरों, विशेषज्ञों, न्यूट्रिशनिस्ट्स और इंफ्लुएंसर्स को एक साथ लाया जाए ताकि 40 की उम्र के बाद की ज़िंदगी और उसके अवसरों पर चर्चा हो सके,” कहा शैली चोपड़ा ने, जो SheThePeople और Gytree की संस्थापक और इस आयोजन की मुख्य ताक़त हैं।
उनके शब्दों ने माहौल तय कर दिया: मिडलाइफ़ पर बातचीत अब मुख्यधारा में होनी चाहिए, न कि किनारों पर धीमी आवाज़ों में की जाने वाली चर्चा।
अदृश्यता के जादू को तोड़ना
फेस्टिवल की सबसे प्रभावशाली चर्चाओं में से एक आईं इंडिया गैरी-मार्टिन, जो ACT 3 की संस्थापक हैं और वॉशिंगटन डी.सी. से अपना दृष्टिकोण साझा करने आईं। उन्होंने बताया कि मिडलाइफ़ में महिलाएँ अक्सर अदृश्य कर दी जाती हैं न तो कार्यस्थलों पर उन्हें देखा जाता है, न ही मीडिया में उनकी पर्याप्त मौजूदगी होती है, और न ही नीतियों में उनकी आवाज़ सुनी जाती है।
उनका कहना था, “हमें पहचान और पुनर्निर्माण पर ध्यान देना होगा।” उनके अनुसार रीइंवेंशन कोई विलासिता नहीं, बल्कि एक ज़रूरत है। चालीस और उसके बाद की उम्र में महिलाएँ धीमी नहीं होतीं, बल्कि दिशा बदलती हैं, फैलती हैं और अपने लिए नई संभावनाएँ गढ़ती हैं।
रीइंवेंशन का यही संदेश फेस्टिवल के विभिन्न पैनलों में झलकता रहा, Identity & Image से लेकर Leading with Confidence और Work, Worth & Wellbeing तक। संदेश साफ़ था—चालीस की उम्र में महिलाएँ ख़त्म नहीं होतीं, बल्कि अपनी शर्तों पर नेतृत्व की शुरुआत करती हैं।
सिर्फ़ जीना नहीं, बल्कि खिलना
काफ़ी समय से मेनोपॉज़ को एक अंत के रूप में देखा जाता रहा है। लेकिन वरिष्ठ स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. नोज़र शेरीआर ने इसे एक नई दिशा दी। उनका कहना था, “यह समझना ज़रूरी है कि चालीस के बाद और मेनोपॉज़ के बाद ज़िंदगी थम नहीं जाती। सही सहयोग और देखभाल के साथ यह और भी बेहतर ढंग से खिल सकती है।”
फेस्टिवल के The Science of Her और Redefining Ageing जैसे पैनलों ने महिलाओं को मेडिकल जानकारी और भावनात्मक सहारा दिया। हॉट फ्लैशेस से लेकर हड्डियों की सेहत तक, नींद की कमी से लेकर बदलते मेटाबॉलिज़्म तक विज्ञान को साफ़ शब्दों में सामने रखा गया।
ज्ञान यहाँ सशक्तिकरण का साधन बना जहाँ पहले खामोशी और शर्म थी, वहाँ अब आत्मविश्वास और समाधान थे।
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दूसरा जन्म
अगर विज्ञान इस फेस्टिवल का एक स्तंभ था, तो पोषण उसका दूसरा। प्रमुख न्यूट्रिशनिस्ट और लेखिका शोनाली सबरवाल ने इस दौर को “हर महिला के लिए दूसरा जन्म” बताया। उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि अविवाहित महिलाएँ जिन्हें अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है, उन्हें भी मिडलाइफ़ हेल्थ के लिए मार्गदर्शन और ध्यान की ज़रूरत है।
उन्होंने समझाया कि भोजन सिर्फ़ पेट भरने का साधन नहीं, बल्कि लचीलापन, रोग-प्रतिरोधक क्षमता और पूरी तरह से जीने की ताक़त है।
उनका सेशन Food as Medicine और Strong at Any Age जैसे पैनलों से जुड़ा रहा, जिनका संदेश साफ़ था जो पोषण, प्रोटीन और जीवनशैली में निवेश करना आत्म-सम्मान का प्रतीक है, कोई विलासिता नहीं।
इंटिमेसी को फिर से पाना
शायद सबसे बड़ा टैबू तोड़ने वाला सत्र था पल्लवी बर्नवाल, सेक्सुअल वेलनेस एडवाइज़र का, जिन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि महिलाओं की सेहत और वेलबीइंग का एक अहम हिस्सा उनकी सेक्सुअल जर्नी भी है। उनका कहना था, “सेक्सुअल जर्नी वेलनेस का हिस्सा है और हमें इसे स्वीकार करना चाहिए।” लंबे समय से चालीस के बाद की सेक्सुअलिटी को या तो चुप्पी में ढक दिया गया या अप्रासंगिक मान लिया गया। पैनल ने साफ़ कहा कि मिडलाइफ़ सेक्सुअलिटी असली है और यह आत्मसम्मान, जुड़ाव और ख़ुशी के लिए बेहद ज़रूरी है।
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एक विश्वास की कम्युनिटी
फ़ैब्युलस ओवर फ़ोर्टी का मंच आवाज़ों से गूंज उठा जब डर्मेटोलॉजिस्ट्स, लाइफ़ कोचेस, कॉर्पोरेट लीडर्स, मेंटल हेल्थ एक्सपर्ट्स सभी उसी खामोशी की दीवार को तोड़ रहे थे जिसने दशकों तक महिलाओं को पीछे रोके रखा।
फेस्टिवल में चर्चा हुई कि उम्र के साथ बॉडी इमेज कैसे बदलती है, महिलाएँ लंबे जीवन के लिए आर्थिक रूप से कैसे तैयार हो सकती हैं, और कार्यस्थल की संस्कृति को हार्मोनल हेल्थ को ध्यान में रखकर कैसे ढलना होगा।
यह सिर्फ़ मेडिकल तथ्यों की बात नहीं थी। यह एक कम्युनिटी ऑफ़ बिलीवर्स बनाने का सफ़र था जो अदृश्यता, शर्म और आत्म-संदेह को ठुकरा दें। हर सत्र ने इस विश्वास को और मज़बूत किया कि चालीस, पचास और उसके बाद की महिलाएँ घटती नहीं, बल्कि बढ़ती ताक़त बन रही हैं।
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नैरेटिव को बदलना
फ़ैब्युलस ओवर फ़ोर्टी सिर्फ़ एक इवेंट नहीं था, बल्कि एक सांस्कृतिक हस्तक्षेप था। इसने एक ऐसा मंच दिया जहाँ हेल्थ एक्सपर्ट्स, इंफ्लुएंसर्स और ख़ुद महिलाएँ खुलकर बात कर सकें और लंबे समय से जमी हुई धारणाओं को चुनौती दे सकें।
समापन संदेश सरल लेकिन गहरा था: मिडलाइफ़ कोई बोझ नहीं, बल्कि एक बोनस है। सही जानकारी, पोषण, सहयोग और सेल्फ-केयर के साथ महिलाएँ इस जीवन चरण में आत्मविश्वास और स्पष्टता के साथ आगे बढ़ सकती हैं।
या जैसा कि शैली चोपड़ा ने कहा:“चालीस के बाद की ज़िंदगी महिलाओं के लिए अवसरों से भरी होती है।