International Men’s Day: “मर्दानगी का मतलब गुस्सा दिखाना” Patriarchal माइंडसेट को सपोर्ट करती बॉलीवुड मूवीज़

अगर स्क्रीन पर aggression ही “heroism” बन जाए तो यूथ क्या सीखेगा? जानिए बॉलीवुड कैसे टॉक्सिक masculinity को normal बनाने में सबसे बड़ा रोल निभा रहा है।

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Deepika Aartthiya
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Photograph: (IMDB)

सालों से हमारे patriarchal समाज में मर्दानगी की परिभाषा वही दिखाई जाती है जो स्क्रीन पर glorify की जाती है। गुस्सा, पोज़ेसिवनेस, कंट्रोल, बदला और डोमिनेन्स। बॉलीवुड ने इन traits को एक “heroic attitude” बनाकर पेश किया है। और दिक्कत ये है कि युवा लड़के इसे सिर्फ़ कहानी नहीं, बल्कि एक ऐसा बिहेवियर मान लेते हैं जिसे फॉलो करना चाहिए। भारत में फिल्में सिर्फ़ मज़ा नहीं देतीं, वो सोच भी बनाती हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या aggression ही मर्दानगी है? या हम टॉक्सिक masculinity को नॉर्मल बनाने की गलती कर रहे हैं?

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Bollywood Patriarchy: “मर्दानगी का मतलब गुस्सा दिखाना” Patriarchal माइंडसेट को सपोर्ट करती बॉलीवुड मूवीज़

1. जब गुस्सा ही मर्दानगी की पहचान बन जाए

कबीर सिंह, एनिमल और अर्जुन रेड्डी जैसी फिल्मों में गुस्सैल, ऑब्सेसिव और हिंसक पुरुष को “इंटेंस लवर” बनाकर दिखाया जाता है। यहाँ सबसे बड़ी समस्या यह है कि ऐसे करैक्टर को glorify किया जाता है। लड़के सीखते हैं कि सॉफ्टनेस कमजोरी है और aggression ही पावर है। “अगर हीरो ऐसे बिहेव करता है, तो ये नॉर्मल है” वाली थिंकिंग यूथ की पर्सनेलिटी शेप करने लगती है।

2. Possessiveness को प्यार की भाषा दिखाना

बॉलीवुड ने कंट्रोल, jealousy और obsessive बिहेवियर को रोमांटिक टैग दे दिया है। लड़की पर हक़ जताना, पीछा करना, चीजें तोड़ना ये सब “प्यार जताने” का तरीका दिखाया जाता है। यह सीधा-सीधा patriarchy का मेसेज है कि मर्द प्रोटेक्ट करेगा और महिला obey करेगी। इसी सोच ने अनहैल्दी रिलेशनशिप पैटर्न को नॉर्मल बना दिया।

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3. यूथ एक्टर्स को क्यों फॉलो कर लेता है?

क्योंकि एक्टर्स सिर्फ स्टार नहीं होते, रोल मॉडल भी होते हैं। उनकी पर्सनेलिटी, डायलॉग्स, अग्रेशन सब इन्फ्लुएंस करता है। हिट फिल्मों के टॉक्सिक बिहेवियर ऑडियंस को एक्सेप्टेबल लगने लगते हैं। ब्लाइंड admiration patriarchy को मजबूत करती है और इमोशनल मेच्युरिटी को कमजोर।

4. टॉक्सिक स्टोरीज़ पुरुषों को भी नुकसान करती हैं

ऐसी फिल्मों का नुकसान सिर्फ महिलाओं को नहीं होता। पुरुष भी vulnerability को कमजोर समझने लगते हैं। सॉफ्टनेस, कम्युनिकेशन या हेल्प मांगना उन्हें “नॉन-मेनली” लगता है। नतीजा इमोशनली वीक, इंपल्सिव और रिलेशनशिप डेमेजिंग बिहेवियर में बदलना।

5. इमोशनल एक्सप्रेशन का मज़ाक बनाना

“मर्द रोते नहीं” जैसे डायलॉग्स फिल्मों में बार-बार मज़ाक की तरह यूज़ किया जाते हैं। इससे बॉयज़ बचपन से सीखते हैं कि रोना शर्म की बात हैं। गुस्सा acceptable है, पर इमोशन नहीं और यही असंतुलन उन्हें इमोशनली डिस्कनेक्टेड बनाता है।

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6. Healthy Masculinity दिखाने की ज़रूरत

फिल्में माइंडसेट बना सकती हैं। इसलिए रब ने बना दी जोड़ी, छिछोरे, डियर ज़िन्दगी जैसी फिल्मों का वैल्यू और बढ़ जाता है। ये बताती हैं कि रिस्पेक्ट मर्दानगी है, कम्युनिकेशन ताकत है और मैच्युरिटी ही रियल strength है aggression नहीं।

7. Patriarchy ब्रेक करना बॉलीवुड की भी ज़िम्मेदारी 

अगर स्क्रीन पर अग्रेशन को ही masculine पहचान बना दिया जाएगा, तो सोसाइटी empathy और इमोशनल इंटेलिजेंस कैसे सीखेगी? लाखों लोग एक्टर्स को फॉलो करते हैं तो मेकर्स को समझना चाहिए कि हर कहानी असर छोड़ती है। जब हीरो बाउंडरीज़ समझेगा, सम्मान दिखाएगा और मेच्युरिटी अपनाएगा तो ऑडियंस भी वही सीखेगी। आख़िरकार, स्क्रीन पर जो नॉर्मल दिखता है, वही सोसाइटी की आदत बनता है।

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