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Photograph: (Pinterest via FabOccasions)
आज जब भी कोई रिश्ता टूटता है, तो अक्सर उंगलियाँ औरत पर उठती हैं, “आज की औरतें बहुत बोलने लगी हैं”, “सबको बराबरी चाहिए”, “पहले जैसी सहनशीलता नहीं रही।” लेकिन क्या कभी किसी ने सोचा है कि क्या पहले रिश्ते वाकई मजबूत थे, या बस महिलाएँ अपनी आवाज़ दबाकर रिश्तों को “चलता हुआ” दिखा रही थीं? सच क्या है, आइए जानते हैं।
Broken Relationships: क्या अब तक महिलाओं की चुप्पी ने ही थाम रखी थी रिश्तों की डोर?
पहले रिश्ते चलते थे, लेकिन किस कीमत पर?
हमारे समाज में “अच्छी बहू” या “अच्छी पत्नी” का मतलब हमेशा यही रहा है कि वो चुप रहे, सहती रहे और सवाल ना करे। जिसके चलते कई पीढ़ियों तक औरतें अपनी इच्छाओं, तकलीफों और सपनों को दबाकर सिर्फ़ रिश्ते बचाती रहीं। पर क्या ये मजबूरी रिश्ते की मज़बूती थी या बस एकतरफ़ा समझौता? अब जब महिलाएँ अपनी बात खुलकर कहने लगी हैं तो इससे रिश्ते कमजोर नहीं हुए, बल्कि दिखावे का बैलेंस सामने आने लगा है।
समानता आई, तो अहम टूटने लगा
रिश्तों में बराबरी की बात आज भी कई लोगों के लिए असुविधाजनक है। जब एक महिला कहती है कि उसे भी फैसले लेने का हक़ है, या उसे भी “स्पेस” चाहिए, तो मर्दानगी को चोट लगती है। यही वजह है कि कई पुरुष “उसके बदलने” को वजह बताकर रिश्ता छोड़ देते हैं। लेकिन असल में टूटता रिश्ता नहीं, टूटता अहंकार है।
बोलना बगावत नहीं, कम्युनिकेशन है
कई बार कहा जाता है कि औरतें अब ज़्यादा “आवाज़ उठाने” लगी हैं। लेकिन क्या किसी रिश्ते की मज़बूती का मतलब सिर्फ़ एक पक्ष की चुप्पी है? असल में वो बस अब अपनी बात रखने लगी हैं, जिसे पहले दबा दिया जाता था। एक healthy रिश्ता वहीं होता है जहाँ दोनों की बात सुनी और समझी जाए, न कि जहाँ सिर्फ़ एक की चले। सच्चे रिश्ते बात करने से बनते हैं, चुप रहने से नहीं।
रिश्ते तब टिकेंगे, जब बराबरी होगी
हर रिश्ता तभी लंबा चलता है जब उसमें mutual respect और emotional safety हो। औरत की आवाज़ को रिश्ते के दुश्मन की तरह नहीं, बल्कि उसकी सच्चाई के तौर पर देखा जाना चाहिए। आज की औरत जब बोलती है, तो वो रिश्ते को तोड़ती नहीं, बल्कि उसे सच का आईना दिखाती है।
चुप्पी से समझौता तक औरत की भूमिका हमेशा परखी गई
कई सालों तक औरतों को सिखाया गया कि रिश्ते बचाने की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ उनकी है। अगर पति नाराज़ है, तो मनाओ, ससुराल में दिक्कत है, तो सह लो। लेकिन अब महिलाएँ समझने लगी हैं कि समझौता और सम्मान में फर्क होता है। रिश्ते तब चलते हैं जब दोनों की फीलिंग्स की क़द्र हो, न कि जब एक पक्ष हमेशा झुकता रहे। अब “समझौते की चुप्पी” की जगह “स्वाभिमान की आवाज़” ने ले ली है।
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