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Photograph: (Pinterest via Creative Market)
हमारे समाज में आज भी “वर्जिनिटी” को एक लड़की के चरित्र, पवित्रता और वैल्यूज़ से जोड़कर देखा जाता है। पर क्या किसी की बॉडी से उसके कैरेक्टर का अंदाज़ा लगाया जा सकता है? हमेशा से औरत की पहचान उसके शरीर से तय की जाती रही है, चाहे बात कपड़ों की हो या वर्जिनिटी की। ये सोच सिर्फ महिलाओं पर कंट्रोल बनाए रखने का एक तरीका बन गई है।
⁠Her Body, Her Choice: वर्जिनिटी चरित्र नहीं, सामाजिक सोच की सीमा बताती है
‘Virginity’ एक मिथ
समाज ने “वर्जिनिटी” को ऐसा टैग बना दिया है जिससे औरत का कैरेक्टर तय किया जाता है। अगर कोई लड़की अपनी मर्ज़ी से कुछ भी चुनती है, तो उसे “कैरेक्टरलेस” कहा जाता है। लेकिन क्या वाक़ई में किसी की सोच या काम से ज़्यादा ज़रूरी उसकी बॉडी है? इस तरह की सोच रखना दिखाता है कि समाज अब भी औरत की आज़ादी से डरता है। क्योंकि असल में वर्जिनिटी कोई हकीकत नहीं, बल्कि समाज द्वारा गढ़ा गया एक मिथ है, जिसे मॉरैलिटी और कल्चर के नाम पर औरतों पर थोप दिया गया है।
क्यों शरीर से जोड़ी गई इज़्ज़त?
हम सब ने अक्सर सुना है कि “घर की इज़्ज़त लड़की से ही है”, लेकिन क्या सच में घर की इज़्ज़त केवल औरतों की ही ज़िम्मेदारी है? इसका सीधा मतलब तो यही है कि मर्द पर ऐसी कोई पाबंदी नहीं है और वो जो चाहे वो कर सकता है। अगर किसी की बॉडी से इज़्ज़त तय होती है, तो फिर मर्दों की इज़्ज़त कहाँ जाती है? सच्चाई ये है कि ये बस एक डबल स्टैंडर्ड है, जहाँ नियम हमेशा औरतों के लिए बनाए गए। ये सोच सिर्फ औरत को कंट्रोल करने और उसे बराबरी से रोकने का बहाना मात्र है।
साइंस क्या कहता है?
साइंस के अनुसार “वर्जिनिटी” का जैसी कोई चीज़ नहीं होती और इसका कोई सबूत भी नहीं है। “हाइमन” (hymen) हर लड़की में अलग होता है, और बिना किसी सेक्सुअल एक्सपीरियंस के भी ब्रेक हो सकता है। यानी ये कॉन्सेप्ट सिर्फ एक सोशल मिथ है, जिसे समाज ने “संस्कार” और “पवित्रता” के नाम पर सच्चाई बनाने की पूरी कोशिश की है और काफ़ी हद तक वो इसमें सफल भी रहा है।
इज़्ज़त सोच से होती है, शरीर से नहीं
“वर्जिनिटी” पर सवाल उठाना किसी संस्कृति का विरोध नहीं, बल्कि इंसान की आज़ादी का समर्थन है। औरत की मरज़ी को “कैरेक्टर” से जोड़ना दरअसल उसकी dignity को कम करना है। समाज को समझना होगा कि औरत का सम्मान उसके कपड़ों या शरीर से नहीं, बल्कि उसकी सोच, इरादों और काम से तय होना चाहिए। अगर किसी की मरज़ी और पसंद को एक्सेप्ट करना मुश्किल लगता है, तो समस्या उस इंसान में नहीं, आपकी सोच में है। असली “संस्कार” वही हैं जो किसी की फ्रीडम का सम्मान करना सिखाएँ ना कि उसे झूठे मिथ में बाँधकर रखें। बराबरी सिर्फ बातों में नहीं, असलियत में भी दिखनी चाहिए।
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