Her Body Her Choice: पीरियड्स आए, तो आज़ादी क्यों जाए?

पीरियड्स एक नेचुरल प्रक्रिया है, फिर भी समाज आज इसे शर्म और पाबंदियों से जोड़ता है। हर महिला को अपने शरीर और फैसलों पर खुलकर अधिकार होना चाहिए।

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Deepika Aartthiya
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Photograph: (Freepik & Creative Market)

हर महीने पीरियड्स आना महिलाओं के लिए एक नेचुरल प्रक्रिया है, फिर भी समाज आज तक इसे शर्म और पाबंदियों से जोड़कर देखता है। कई घरों में आज भी महिलाओं को “अशुद्ध” मानने की परंपरा जारी है। ये सोच पुरानी और अज्ञानता पर आधारित है। साइंस इस बात पर सहमत नहीं जताता है। फिर भी इस समय अपवित्रता के नाम पर उनकी आज़ादी सीमित कर दी जाती है। सवाल ये है कि हमारे शरीर पर फैसले लेने का अधिकार समाज को किसने दिया?

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Her Body Her Choice: Periods आए, तो आज़ादी क्यों जाए?

जन्म लेना शर्म की बात नहीं, तो पीरियड्स क्यों?

पीरियड्स कोई गंदगी नहीं, बल्कि शरीर का नेचुरल क्लीनिंग प्रोसेस है, जो एक नई ज़िंदगी की संभावना का संकेत देता है। अगर ये जन्म से जुड़ी प्रक्रिया ना होती, तो एक महिला को प्रेगनेंसी में भी पीरियड्स होते, लेकिन ऐसा नहीं होता। इसे समझना इतना मुश्किल भी नहीं है, जितना लोगों ने बना दिया है।

फिर भी इसे लेकर शर्म और चुप्पी का माहौल बना दिया गया है। स्कूल-कॉलेजों में लड़कियाँ आज भी पैड छुपाकर ले जाती हैं, जैसे कोई ग़लती कर रही हों। जब जन्म लेना अपवित्र नहीं है, तो पीरियड्स को ग़लत क्यों माना जाए? ये भी शरीर का उतना ही नॉर्मल प्रोसेस है, जितना सांस लेना या खाना खाना।

पुराने नियमों की जड़ें अब भी इतनी गहरी क्यों हैं?

“धार्मिक जगह मत जाओ”, “किचन में कदम मत रखो”, “आचार मत छुओ” ऐसी बातें लगभग हर लड़की ने अपने घर में कभी न कभी सुनी होंगी। ये सोच पूरी तरह अज्ञानता और अंधविश्वास पर आधारित है। साइंस के अनुसार, पीरियड्स के दौरान महिलाओं की बॉडी वीक नहीं होती, बल्कि उसे सिर्फ़ आराम की ज़रूरत होती है। इसके बावजूद महिलाओं को अशुद्ध कहकर उन पर रोक-टोक लगाना समाज की सोच की कमजोरी को दर्शाता है, न कि महिलाओं की। समाज ने इसे “छूआछूत” की तरह बना दिया, जिससे महिलाएँ शर्म महसूस करने लगती हैं उस चीज़ के लिए, जो उन्हें प्रकृति ने दी है। 

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कैसे आ सकता है बदलाव?

आज ज़रूरी है कि महिलाओं को उनके शरीर के फैसले खुद लेने का अधिकार मिले। समाज और परिवार को समझना होगा कि पीरियड्स कोई अपराध नहीं, बल्कि एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। सही एजुकेशन, ओपन डिस्कशन और पीरियड अवेयरनेस की हेल्प से इस मिथ और टैबू को तोड़ा जा सकता है। इससे महिलाएं ना सिर्फ़ अपने हैल्थ और हाइजीन का ध्यान रख सकती हैं, बल्कि अपनी आज़ादी और आत्मसम्मान को भी बनाए रख सकती हैं।

क्या मेरी बॉडी पर मेरा हक़ नहीं?

जिस समय एक महिला को अपने परिवारजनों से केयर और प्यार की ज़रूरत होती है, उसी समय उसे कॉर्नर कर दिया जाता है। ये ना केवल महिलाओं के साथ injustice बल्कि इंसानियत के तौर पर भी अन्याय है। आख़िर कब तक महिलाओं को सीमा में बांधकर इन परंपराओं को इंसानियत से ऊपर समझा जाएगा? ये महिलाओं की आज़ादी और सम्मान दोनों की बात है। ये सिर्फ़ उनका हक़ नहीं, बल्कि मानवाधिकार का मुद्दा भी है। हर महिला को ये अधिकार है कि वो बिना किसी डर और अपराधबोध के अपनी जीवनशैली और धार्मिक गतिविधियों में भाग ले सके। 

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