आज भी महिलाओं के कपड़ों को उनकी सोच और संस्कार से जोड़ा जाता है, जबकि कपड़ों की आज़ादी हर महिला का हक है। आख़िर समाज कब तक पहनावे से महिलाओं के संस्कारों की तुलना करता रहेगा?
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