Her Body Her Choice: “कपड़ों की आज़ादी” समाज का दबाव या महिला की पसंद?

आज भी महिलाओं के कपड़ों को उनकी सोच और संस्कार से जोड़ा जाता है, जबकि कपड़ों की आज़ादी हर महिला का हक है। आख़िर समाज कब तक पहनावे से महिलाओं के संस्कारों की तुलना करता रहेगा?

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Deepika Aartthiya
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Photograph: (Trend With Uswa & AI Image)

आज के दौर में महिलाएँ हर फील्ड में अपनी पहचान बना रही हैं, लेकिन उनके कपड़ों को लेकर अब भी समाज में बहस जारी है। किसी की ड्रेस थोड़ी मॉडर्न हो तो उसके “संस्कारों” पर सवाल उठाए जाते हैं, और अगर कोई साड़ी या सूट पहने तो उसे “बहुत पारंपरिक” या “बहनजी” का टैग दे दिया जाता है। आखिर क्यों महिलाओं के पहनावे को उनकी थिंकिंग या करैक्टर का स्केल माना जाता है?

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Her Body Her Choice: “कपड़ों की आज़ादी” – समाज का दबाव या महिला की पसंद?

“कपड़ों की आज़ादी” महिलाओं का हक

कपड़ों की आज़ादी का मतलब सिर्फ छोटे या पारंपरिक कपड़े पहनने की बात नहीं है, बल्कि ये उस अधिकार की बात है जहाँ एक महिला खुद तय कर सके कि उसे किस कपड़े में कम्फर्टेबल महसूस होता है। लेकिन हमारे समाज में अब भी महिलाओं के कपड़ों पर राय देने वालों की कमी नहीं है, फिर चाहे वो सड़क हो, दफ्तर हो या सोशल मीडिया।

क्या पहनावा किसी के संस्कार को तय करता है?

सबसे बड़ी सामाजिक विडंबना है, किसी महिला के कपड़ों को देखकर उसके संस्कार, मर्यादा या सोच को जज करना। सच्चाई ये है कि कपड़े किसी की सोच नहीं बताते, बल्कि सिर्फ उसकी पसंद दिखाते हैं। फिर भी समाज ने एक अदृश्य नियम बना रखा है कि “महिलाओं को ऐसा पहनना चाहिए” या “वैसा नहीं पहनना चाहिए।” ये सोच ना केवल महिलाओं की आज़ादी पर रोक लगाती है, बल्कि उनकी सेल्फ एक्सप्रेशन को भी सीमित करती है।

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अगर Jeans या Short Dress पहनी तो “बेशर्म”, अगर पर्दा किया तो “पुरानी सोच”। महिला चाहे जो पहने, समाज के पास जज करने का कोई ना कोई स्केल हमेशा तैयार रहता है। असल में संस्कार कपड़ों में नहीं, व्यवहार में होते हैं।

Body Shaming और  कंट्रोल का कल्चर

“इतना खुला क्यों पहना?”, “इतना ढीला क्यों पहना?” ये बातें दिखाती हैं कि महिलाओं के बॉडी पर कंट्रोल करने की कोशिश अब भी जारी है। स्कूलों, दफ्तरों और यहाँ तक कि घरों में भी महिलाओं के पहनावे पर नियम बनाए जाते हैं, लेकिन पुरुषों के कपड़ों पर शायद ही कभी सवाल उठता हो।

आज़ादी का मतलब बग़ावत नहीं

जब कोई महिला अपनी पसंद से कपड़े पहनती है, तो वो किसी के खिलाफ नहीं होती, बस अपने हिसाब से ज़िंदगी जीना चुनती है। कपड़ों की आज़ादी का मतलब समाज को चुनौती देना नहीं, बल्कि खुद को स्वीकार करना है।

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कपड़े केवल बॉडी ढकने का साधन नहीं, बल्कि आत्मविश्वास और पहचान का हिस्सा हैं। हर महिला का शरीर, उसकी पसंद और उसका कम्फर्ट ज़रूरी है ना कि समाज का फैसला। अगर कोई लड़की जीन्स पहनती है तो वो ‘modern’ नहीं हो जाती, और अगर सलवार-कुर्ता पहनती है तो ‘traditional’ की कैटेगरी में नहीं बंध जाती। ज़रूरी ये है कि वो अपने चुनाव से खुश और comfortable हो।

“Her Body, Her Choice”

मेरी नज़र में “कपड़ों की आज़ादी” का असली मतलब यही है कि जब एक महिला बिना डर, शर्म या समाज के टैग्स की चिंता किए वही पहन सके, जिसमें वो खुद को सबसे ज़्यादा खुद जैसी महसूस करे। किसी के पहनावे पर राय देने से बेहतर है कि हम अपनी सोच पर काम करें और समय के साथ बदलाव को एक्सेप्ट करें।

हर महिला को ये तय करने की पूरी आज़ादी है कि वो क्या पहने, खुलकर जिए और अपने बॉडी को जैसा चाहतीं है वैसे अपनाए। समाज को उसके फैसलों का सम्मान करना चाहिए। 

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