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Photograph: (Freepik)
भारत में पीरियड्स पर बात आज भी हिचक के साथ होती है। ऐसे में कुछ राज्य पहली बार कार्यस्थल पर “period pain” को रीयल हेल्थ इश्यू की तरह देखा है, ना कि किसी शर्म या कमजोरी की तरह। इसका उदाहरण बना है कर्नाटक राज्य जिसने हाल ही में महिलाओं को हर महीने एक paid menstrual leave देने का ऐलान किया है। और ये लीव केवल सरकारी ही नहीं बल्कि प्राइवेट सेक्टर तक में लागू होगी। वैसे तो पहली नज़र में ये फैसला महिलाओं की सेहत और जेंडर सेंसिटिविटी के लिए ऐतिहासिक कदम लगता है। आखिरकार, अब महिलाएं “दर्द के पीछे छुपी मुस्कुरआहट” लिए काम करने को मजबूर नहीं होंगी। लेकिन क्या ये कदम वाकई राहत लाएगा, या फिर कामकाजी महिलाओं के लिए नई मुश्किलें मुश्किलें खड़ी करेगा? आइए, दोनों पहलुओं को समझते हैं।
Menstrual Leave Debate: दर्द से राहत या करियर में रुकावट? पीरियड्स लीव पर समझ ज़रूरी
राहत की दिशा में कदम
Menstrual leave महिलाओं को अपने बॉडी के प्रति ऑनेस्ट और कम्फर्टेबल बनने का मौका देती है। यह न सिर्फ फिज़िकल कम्फर्ट देती है, बल्कि मेंटल हैल्थ के लिए भी ज़रूरी कदम है। यह एक जेंडर सेंसिटिव वर्क स्पेस की तरफ बढ़ने का संकेत है। कई महिलाएँ PMS, cramps, fatigue और मूड स्विंग्स जैसी स्थितियों से गुज़रती हैं, फिर भी वर्क प्रेशर में इसे नजरअंदाज करती हैं। ऐसे में पीरियड लीव महिलाओं के लिए एक मानवीय और ज़रूरी कदम है। यह बताता है कि menstruation भी एक हेल्थ कंडीशन है।
पर क्या इससे बढ़ेगा हायरिंग का डर?
हर अच्छी पॉलिसी के साथ challenges भी आते हैं। कई एम्प्लॉयर्स सोच सकते हैं कि “अगर फीमेल एम्प्लॉयज़ साल में 12 दिन extra leave लेंगी, तो प्रॉडक्टिविटी कम होगी। डर यह भी है कि कहीं कंपनियाँ “extra cost” से बचने के लिए महिलाओं को हायर करने में झिझकने न लगें। यानी जो पॉलिसी राहत देने आई है, वही कहीं नए भेदभाव की वजह न बन जाए। जैसे मैटरनिटी लीव के बाद कुछ कंपनियाँ वुमन हायरिंग से बचती हैं, वैसे ही पीरियड लीव भी एक नया अनस्पॉकन बायस ला सकती है। इससे हायरिंग या प्रोमोशंस दोनों पर असर हो सकता है।
बराबरी का असली मतलब
बराबरी का अर्थ “एक्स्ट्रा फेवर” देना नहीं, बल्कि bias हुए बिना महिलाओं की बायोलॉजिकल नीड्स को समझना होना चाहिए। शायद सिर्फ extra leaves देने के बजाय फ्लेक्सीबल वर्क ऑवर्स, WFH ऑप्शन्स, या हेल्थ लीव सिस्टम जैसे विकल्प बेहतर साबित हो सकते हैं। क्योंकि असली प्रगति तब होगी जब महिलाओं को sympathy नहीं, sensitivity मिले।
“Weak Gender” की छवि को मज़बूती
कुछ लोग तर्क करते हैं कि ऐसी पॉलिसीज़ महिलाओं को “वीक या स्पेशल ट्रीटमेंट की डिमांड वाली” कैटेगरी में डाल देती हैं। इससे समानता के बजाय डिपेंडेन्स या “महिलाएं स्ट्रेस या काम के प्रेशर को नहीं झेल पातीं” जैसे stereotype को और बढ़ावा मिल सकता है।
पॉलिसी Implementation की प्रेक्टिकल दिक्कतें
हर महिला का पीरियड एक्सपीरियंस अलग होता है। कुछ को severe pain होता है, कुछ को मैनेजेबल डिस्कम्फर्ट। तो “सिर्फ फिक्स्ड 12 leaves” का मॉडल सब पर फिट नहीं बैठता। इससे अनफ़ेयरनेस भी लग सकती है, किसी को जरूरत से कम, किसी को ज़्यादा।
Core Problem– Stigma अब भी बाकी है
Policy आ जाने से स्टिग्मा खत्म नहीं होता। कई महिलाएँ फिर भी leave लेने में हेज़िटेशन महसूस करेंगी इस डर से कि उन्हें लोग जज ना करें। यानी पेपर पर एंपावरमेंट, पर माइंडसेट अब भी पीछे।
सच में महिलाओं के लिए राहत या रुकावट?
सोचने वाली बात है कि मेंस्ट्रुअल लीव महिलाओं को राहत दे रही है, या सोसाइटी को एक और वजह कि वो उन्हें “कम केपेबल” समझे? जवाब शायद दोनों के बीच कहीं गुम है जहाँ राहत भी है, और rethink की ज़रूरत भी। Menstrual leave की सक्सेस पॉलिसी से ज़्यादा सोसाइटी की सोच पर निर्भर करती है। अगर हम इसे “स्पेशल ट्रीटमेंट” की तरह नहीं, बल्कि “हैल्थ नीड” की तरह समझें, तभी ये सच्चे मायने में एंपावरमेंट है।
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