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Photograph: (Pinterest AI image via ARTVOTA)
आज के डिजिटल वर्ल्ड ने खूबसूरती की परिभाषा को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है। सोशल मीडिया, विज्ञापनों और टीवी शोज़ के बढ़ते क्रेज़ ने हर किसी पर इंपैक्ट डाला है। हर जगह केवल ग्लोइंग स्किन, परफेक्ट बॉडी और बेदाग चेहरा दिखाया जाता है। लेकिन असल में ये झूठा परफेक्शन आम महिलाओं के सेल्फ-कॉन्फिडेंस और मेंटल हेल्थ पर बुरा असर डाल रहा है। चलिए जानते हैं कैसे —
जानिए मीडिया के ब्यूटी स्टैंडर्ड्स का महिलाओं के Mental Health पर असर
1. सोशल मीडिया पर तुलना का बढ़ता दबाव
आजकल हर कोई इंस्टाग्राम, स्नैपचैट जैसे प्लेटफॉर्म्स पर फिल्टर्स का सहारा लेकर या एडिटिंग टूल्स का use करके अपनी बेस्ट पिक्चर्स दिखाता है। हालांकि कई बार हकीकत में वो इंसान या फोटो वैसी नहीं होती जैसी दिखाई जाती हैं। फिर भी कई महिलाएं इनसे अफेक्ट होती हैं। वो अपने लुक्स को compare करने लगती हैं और इनसिक्योर फील करने लगती हैं। इसके चलते उनका सेल्फ-एस्टीम भी गिरने लगता है और धीरे-धीरे वो अपनी नेचुरल ब्यूटी को लेकर शर्मिंदगी महसूस करने लगती हैं।
2. झूठे ब्यूटी स्टैंडर्ड्स और उनका असर
सुंदरता को एक तय रूप में बांध देने के पीछे मीडिया का सबसे बड़ा रोल है। सिर्फ़ गोरा रंग, पतली कमर, परफेक्ट फीचर्स, बेदाग चेहरा को ही सुंदरता की परिभाषा बना दिया गया है। इससे लोगों में एक माइंडसेट बनने लगता है कि यही सुंदरता है। और अगर कोई महिला इन मानकों पर खरा नहीं उतर पाती है, तो उसे कम अट्रैक्टिव या बदसूरत होने का टैग दे दिया जाता है। इससे महिलाओं में बॉडी इमेज इश्यूज़, एंग्ज़ायटी और डिप्रेशन जैसी समस्याएं तेज़ी से बढ़ने लगी हैं।
3. ब्यूटी इंडस्ट्री का बिज़नेस और समाज की सोच
ब्यूटी स्टैंडर्ड्स को और बढ़ावा देती हैं आजकल की ब्यूटी ब्रांड्स और ब्यूटी एड्स। कॉस्मेटिक कंपनीज़ अक्सर महिलाओं को फील करवाती हैं कि उन्हें सुंदर दिखने के लिए उनके प्रोडक्ट्स की ज़रूरत है। “एंटी-एजिंग”, “फेयरनेस”, “ग्लोइंग स्किन” जैसे शब्दों से महिलाएं ख़ुद को कमतर आंकने लगती हैं और सुंदर दिखने की दौड़ में शामिल हो जाती हैं। अब ये सिर्फ़ एक बिज़नेस नहीं, बल्कि महिलाओं पर mental pressure डालने का तरीका बन चुका है।
4. महिला-विरोधी सोच (Misogyny) को बढ़ावा
मीडिया में यही चीज़ें बार-बार देखकर हर इंसान एक जैसी “आइडियल ब्यूटी” को ही सच मानने लगता है और समाज भी उसे अपनाता है। नतीजतन महिलाएं अपने रंग-रूप के आधार पर जज की जाती हैं। कभी कोई “मोटी”, कोई “सांवली”, कोई “नॉन-ग्लैमरस” जैसे लेबल्स से उन्हें नीचा दिखाया जाता है। ये सोच महिलाओं की रिस्पेक्ट और सेल्फ-कॉन्फिडेंस दोनों पर चोट पहुंचाती है।
5. मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर
लगातार comparison और परफेक्शन की चाहत में कई महिलाएं अंदर से टूट जाती हैं। वो अपने वजूद पर सवाल करने लगती हैं और अपनी आइडेंटिटी को केवल लुक्स से जोड़ने लगती हैं। इसका सीधा असर उनके रिश्तों, आत्मविश्वास और वर्क एबिलिटी पर भी दिखाई देता है।Body shaming और अनरियलिस्टिक beauty गोल्स की वजह से कई बार महिलाएं ख़ुद से नफ़रत भी करने लगती हैं।