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Photograph: (Getty Images)
बदलता दौर में लोगों की सोच भी बदल रही है। लेकिन आज भी समाज का एक बड़ा हिस्सा कुछ मामलों में पीछे रह गया है। हम बात कर रहे हैं महिलाओं के सेक्सुअल डिज़ायर्स और उनकी अपनी बॉडी को लेकर पर्सनल राइट्स की। अधिकतर जगहों पर आज भी महिलाओं को इस पर खुलकर बात करने की आज़ादी नहीं है। उन्हें हमेशा कल्चरल और सोशल वैल्यू के नाम पर अपने ही फिज़िकल राइट्स से दूर रखा जाता रहा है।
महिलाओं का सेक्स जैसे सामान्य शब्द का ज़िक्र करना भी पाप समझा जाता है। लेकिन जब वही बात किसी मर्द के लिए होती है तो समाज की राय बदल जाती है। तब उसे बड़ा आसानी से नेचुरल कहकर सामान्य बना दिया जाता है। यही दोहरी सोच महिलाओं की आज़ादी और सम्मान के बीच सबसे बड़ी दीवार बनी हुई है।
Her Body Her Choice: “सेक्स का फैसला” सिर्फ मर्द का हक़ क्यों माना जाता है?
औरत की इच्छा को “बेशर्मी” क्यों कहा जाता है?
कई घरों में gender equality सिर्फ कहने भर के लिए या कुछ मामलों में ही दिखाई देती है। कई घरों में अब भी ये सिखाया जाता है कि “अच्छी लड़कियाँ” शादी से पहले सेक्स के बारे में सोचती भी नहीं। लेकिन सवाल ये है कि अगर किसी महिला को अपने बॉडी की ज़रूरतें समझने और निर्णय लेने का हक़ नहीं, तो ये कैसी समानता है?
महिलाओं की इच्छाओं को अक्सर शर्म, संस्कार और “इज्ज़त” की दीवारों में कैद कर दिया जाता है। जबकि असली संस्कार तो यही है कि हर व्यक्ति को अपने शरीर के फैसले खुद लेने की आज़ादी मिले। ठीक वैसे ही जैसे ये पुरुषों के लिए एक आम बात है।
Consent सिर्फ महिलाओं के लिए क्यों नहीं?
किसी भी रिश्ते में दो इंसानों के बीच फिज़िकल रिलेशन बनने से पहले दोनों का “consent” यानी सहमति सबसे ज़रूरी है। लेकिन हमारे समाज में अक्सर मर्द की चाह को महत्व दिया जाता है, और महिला की इच्छा या मना करने का अधिकार नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।
Patriarchy और Emotional Inequality
सेक्स के मामलों में औरत से पूछा तक नहीं जाता कि वो क्या चाहती है। ये सोच सिर्फ पितृसत्ता को ही नहीं बल्कि भावनात्मक असमानता को भी बढ़ावा देती है। जब तक सेक्स को केवल पुरुष की इच्छा के रूप में देखा जाएगा, तब तक औरत की ‘consent’ को गंभीरता से नहीं लिया जाएगा।
समाज को महिला की चुप्पी चाहिए, बराबरी नहीं
जब कोई महिला खुले तौर पर अपनी sexual choice के बारे में बात करती है, तो समाज उसे “बागी”(rebel) या “characterless” का टैग दे देता है। जबकि वही समाज मर्द की सेक्सुअल इच्छाओं को उनकी “मर्दानगी” मानकर सराहता है। असल में समाज को महिला की चुप्पी चाहिए, बराबरी नहीं। लेकिन अब वक्त आ गया है कि महिलाएँ अपने बॉडी और इच्छाओं के फैसले बिना किसी अपराधबोध के ले सकें। क्योंकि ये कोई गुनाह नहीं, उनका अधिकार है।
आख़िर कब महिलाओं के लिए होगा ये सामान्य?
Sex जैसे टॉपिक को सामान्य समझना और दूसरे सामान्य मुद्दों की तरह इस पर बात करना हम सबकी ज़िम्मेदारी है। इसके लिए ज़रूरी है कि हर कोई इस विषय की गंभीरता को समझे। परिवार और स्कूलों में अगर सेक्स एजुकेशन को सही जगह दी जाए, तो महिलाएँ अपने शरीर, सहमति और सीमाओं को बेहतर समझ पाएंगी। इससे समाज में “सेक्स का फैसला सिर्फ मर्द का हक़ है” जैसी सोच को भी बदला जा सकता है।