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भारत में महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई सिर्फ सामाजिक आंदोलनों तक सीमित नहीं रही हैं। न्यायपालिका ने समय समय पर ऐसे फैसले किए हैं जिन्होंने महिला को उनकी पहचान, स्वतंत्रता और गरिमा पूर्ण जीवन का अधिकार उन्हें दिलाया हैं। जब घर से लेकर समाज में महिला अपने अधिकारों को शोषित होते हुए पाती हैं, तो वह कानून को ही अपनी पहली ताकत मानती हैं। लेकिन भारत में उस समय महिलाओं को साथ हों रही हिंसा के खिलाफ उतने कानन नहीं पाएं जाते तो सुप्रीम कोर्ट अपनी भूमिका निभाता हैं। शाह बानो केस से लेकर हालिया संपत्ति और कार्यस्थल से जुड़े फैसलों तक, सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं के कानूनी हक को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं। आइए जानते हैं, उन जजमेंट्स के बारे में जिन्होंने महिला को कानूनी स्वतंत्रता और हक दिया।
Judicial Rights: महिलाओं के कानूनी हक की लड़ाई शाह बानो से वर्तमान तक
शाह बानो केस (1985): आर्थिक सुरक्षा की नींव
1985 में जब शाह बानो बनाम मोहम्मद अहमद खान मामला सामने आया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि तलाकशुदा महिला को भी अपने पति द्वारा भरण पोषण प्राप्त करने का अधिकार हैं। यह मुस्लिम पर्सनल लॉ ले लिए चुनौती बन गया था। यह क़ानून महिलाओं के लिए आर्थिक सुरक्षा और गरिमा की दिशा में पहला बड़ा कदम था। हालांकि बाद में इस पर कानून बनाने का दायरा सीमित कर करने का प्रयास किया था। लेकिन शाह बानो केस ने महिलाओं की अधिकारों की बहस को राष्ट्रीय स्तर पर खड़ा कर दिया था। जिससे भारतीय नागरिक संहिता और IPC-CRPC से महिलाओं को नई क़ानून की पहल मिली।
विशाखा केस (1997): कार्यस्थल पर सुरक्षा
भंवरी देवी के मामले के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल के लिए विशाखा गाइडलाइंस जारी किए थे। यह गाइडलाइंस कार्यस्थल पर महिलाओं को Workplace Harassment से सुरक्षा का कानूनी ढांचा था। इसके बाद इसी के आधार पर POSh Act बना, जिसने महिलाओं को workplace पर कानूनी सुरक्षा दी।
मेधा कोटवाल लेले केस (2012): अनुपालन की मजबूरी
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि विशाखा गाइडलाइंस का पालन हर संस्था को करना होगा। यह फैसला कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा को और मजबूती करता हैं।
शायरा बानो केस (2017): तीन तलाक पर रोक
इस केस ने महिलाओं को गरिमा, स्वतंत्रता और संवैधानिक जीवन का अधिकार दिया था। तीन तलाक महिला को गरिमा पूर्ण जीवन जीने से रोक रहे थे। इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने तलाक ए बिद्दत को असवैधानिक घोषित कर दिया था। पांच जजों की बेंच से बहुमत में यह निर्णय आया, जिसने महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा और तात्कालिक अन्याय को जवाब दिया।
इंडिपेंडेंट थॉट केस (2017): बाल विवाह पर रोक
कोर्ट ने यह फैसला 18 साल से कम उम्र की नाबालिग बच्ची के खिलाफ होने वाली शादी के बाद होने वाली यौन हिंसा पर रोक के लिए बनाया था। यह फैसला बाल विवाह जैसी प्रथा के खिलाफमहिलाओं और बच्चियों की सुरक्षा को मजबूती देता हैं।
जोसेफ साइन केस (2018): विवाह में समानता
यह मामला था जोसेफ साइन vs यूनियन ऑफ इंडिया जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा (497) व्यभिचार क़ानून को असंवैधानिक घोषित किया था। इस केस ने विवाह को साझेदारी के रूप में परिभाषित किया। यह जजमेंट महिलाओं को पति की संपत्ति मानने से रोकता हैं। और उन्हें स्वतंत्र नागरिक के रूप में स्थापित करता हैं।
हालिया फैसले (2025): संपत्ति और कार्यस्थल पर अधिकार
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हिन्दू महिलाओं को अपनी संपत्ति पर वसीयत बनाने का पूरा अधिकार हैं। इसने महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता को और अधिक मजबूती दी।
- साथ ही गोंड जनजाति जो आदिवासी जनजाति कही जाती हैं, जिसने उन्हें महिलाओं को उत्तराधिकार का अधिकार नहीं था। सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं को बराबर उत्तराधिकार का अधिकार दिया, जो सदियों से वंचित था।
- कोर्ट ने महिलाओं की कार्यस्थल की सुरक्षा को ध्यान रखते हुए, POSh Act के दायरे को बढ़ाने पर विचार किया। इसका उद्देश्य महिला अधिवक्ताओं को कार्यस्थल पर सुरक्षा का अधिकार मिलने की बात करता हैं।
शाह बानो से लेकर आज तक कि यह यात्रा बताती हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं को मनुष्य और नागरिक की तरह जीने का अधिकार दिया हैं। साथ ही उन्हें गरिमा, स्वतंत्रता और समानता को भी सुनिश्चित किया हैं। यह न्यायिक यात्रा महिलाओं को नई जिंदगी देती हैं। महिलाएं कानून की सशक्त फैसले से सुरक्षित ही नहीं सशक्त नागरिक की तरह भी महसूस करती हैं।
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